अनिमा दास II
निश्चिह्न कर दो इन पदरेखाओं को
कह दो.. संसार को आह! न कहे
उन्मुक्त कर दो घृणित पक्षियों को
कह दो अश्रुओं को रक्त सा न बहे।
निष्ठुरों की कारा में किया विषपान
मैंने प्रतिदिन दी है प्राणांतक परीक्षा
कह दो…निर्जीवों को..हों गतिमान
सभ्यता के दाह में है अल्प प्रतीक्षा।
कर रहीं प्रस्थान निमंत्रित व्यथाएँ
समाप्ति की घोषणा में हैं पंचभूत
उद्विग्न पवन में जल रहीं कथाएँ
कह दो..समाज से मैं थी अनाहूत।
न..न..मैं नहीं हूँ आज अभिशापित
हो रहा मुझमें एक शून्य पुनर्जीवित।
नदी सी तू…( सॉनेट )
देखो दृश्य दिगंत का.. दीप्त हो रहा
शंख संवित्ति का सुमधुर सुर में बहा
कथाश्रु की दो धाराएँ…तट-द्वय पर
बह गईं विरह के साथ देह उभय पर।
नदी..नदिका,नदीकांत में हुईं निमग्ना
निर्झर निरुत्तर.. नील हुआ है कितना
वन वन नृत्य करता मुग्ध मुदित मयूर
प्राची पवन से प्रीति पुष्पपराग अदूर।
तीर..तरंगिणी.. शून्या तरणी ..क्षोणी
विमुख व्यथा से री!विदग्धा विरहिणी
आहा! स्वप्न समुद्र में संगमित सलिल
उरा के उर से उद्वेलित आपगा उर्मिल ।
मोह लिया..मोक्ष दिया, किया मानित
महाकाव्य की मनस्विनी हुई मोहित।