समीक्षा पुस्तक

समाज को आईना दिखाता है टूटते तटबंध

अश्रुत पूर्वा II

यों तो हर साल कई कहानी संग्रह आते हैं। इनमें कई तो पुस्तक मेले से होते हुए सरकारी खरीद के बाद महाविद्यालयों और सरकारी पुस्तकालयों में धूल खाते रहते हैं। मगर उन्हीं में से कुछ संग्रह और उनकी कहानियां नदी की धारा की तरह आती हैं और मन के तटबंध को तोड़ती हुई हमेशा के लिए जगह बना लेती हैं। कथाकार पूर्णिमा सहारन की कहानियां ऐसी ही हैं।

परिंदे प्रकाशन से छपा उनका कहानी संग्रह ‘टूटते तटबंध’ को पढ़ते हुए लगा कि वे समाज कोअनावश्यक बंधनों से मुक्त तो करना चाहती हैं, मगर टूटते नैतिक मूल्यों को लेकर एक चिंता भी है। पूर्णिमा सहारन ने इस समाज के दोगले चेहरे को सामने रखा है और उन्हें आईना दिखाया है। यही वजह है कि आसपास परिवेश से उठाए उनके पात्र नाटकीय नहीं लगते। उनके साथ आप चलते जाते हैं। उनका दुख-दर्द आप महसूस कर सकते हैं।

कहानी ‘टूटते तटबंध’ में पारंपरिक रिश्ते से मुक्त होने की भारतीय स्त्रियों के मुक्त होने की चाह को कथाकार ने सामने रखा है। नैतिक संबंधों से ज्यादा दैहिक संबंध और यौन संतुष्टि की इच्छा स्त्रियों में जिस तरह बढ़ी है, वह भारतीय परिवारों के लिए चिंता का विषय हो सकता है। मगर इसे अब स्वीकार करना पड़ेगा चाहे बेमन से ही सही। इसके साथ ही जो एक नई तस्वीर सामने आ रही है, वह है सिर्फ अपनी खुशी, अपनी चाहत जिसे युवा महिलाएं अपने हिसाब से जीना चाहती हैं। उनके मूल्य और मानदंड बदल रहे हैं। पूर्णिमा सहारन इस कहानी को लिखते समय किसी द्वंद्व में नहीं पड़ीं और न किसी आदर्शवाद में। लेकिन इसके साथ ही जो पारिवारिक मूल्य या दया भाव खत्म हो रहे हैं, उसकी याद जरूर दिलाई है।

परिंदे प्रकाशन से छपा उनका कहानी संग्रह ‘टूटते तटबंध’ को पढ़ते हुए लगा कि वे समाज को अनावश्यक बंधनों से मुक्त तो करना चाहती हैं, मगर टूटते नैतिक मूल्यों को लेकर एक चिंता भी है। पूर्णिमा सहारन ने इस समाज के दोगले चेहरे को सामने रखा है और उन्हें आईना दिखाया है। यही वजह है कि आसपास परिवेश से उठाए उनके पात्र नाटकीय नहीं लगते। उनके साथ आप चलते जाते हैं। उनका दुख-दर्द आप महसूस कर सकते हैं।

दूसरी तरहफ ‘कहानी तरक्की’ की सीढ़ी में पूर्णिमा सहारन ने स्त्री की अस्मिता और शुचिता को विषय बनाया है। तरक्की के लिए पति राघव के उकसाने और नौकरी बचाने के लिए बॉस से समझौता करने की नसीहत आधुनिक ख्याल रंजना स्वीकार नहीं करती। वह अपना हौसला फिर से जगा कर घुटने नहीं टेकने का फैसला करती है।  इस कहानी का संदेश यही है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए किसी से समझौता करना जरूरी नहीं है। और ‘देह’ से तो बिल्कुल ही नहीं।

कहानी ‘एक और चरित्रहीन’ स्त्रियों और लड़कियों के प्रति भारतीय सोच का बारीकी से पोस्टमार्टम करती है। आज जब पूरा देश बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ पर जोर देता है, वहीं भारतीय परिवारों में आज भी लड़के-लड़कियों में भेद किया जाता है। दो-तीन बेटियों के जन्म के बाद ससुराल में बहुओं की उपेक्षा होने लगती है। धीरे-धीरे प्रताड़ित किया जाने लगता है। कथाकार ने इस कहानी में बताया है कि कोई भी स्त्री चरित्रहीन नहीं होती। उसे चरित्रहीन बनाने की भूमिका पुरुष या मर्दवादी समाज ही बनाता है।

संग्रह में कहानी ‘अम्मा’ पठनीय है। यह हर घर की कहानी है। वहीं ‘दबंगई’ एक गरीब पिता की कहानी है, जिसकी मासूम बेटी को शोहदे उठा कर ले जाते हैं। और उसकी इज्जत को तार-तार कर देते हैं। पूर्णिमा सहारन ने अन्य सभी कहानियों को सहजता से और बिना भूमिका बनाए तथा बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया है। कहीं शब्दों का आडंबर नहीं रचा। और न ही कहन में गंभीरता का बार-बार आवरण लाकर बोझिल होने दिया है। कथाकार ने आत्मकथ्य में लिखा है कि कई बार स्वयं के विचारों, संस्कारों व लेखनी में द्वंद्व चला मगर जब समाज को आईना दिखाने और सत्य को लिखने की चुनौती हो तो लेखनी में ईमानदारी की मांग को पूरा करना आवश्यक हो जाता है। यही उनका प्रयास था।

कथाकार-पूर्णिमा सहारन
पुस्तक- टूटते तटबंध (कहानी संग्रह)
प्रकाशक- परिंदे प्रकाशन
मूल्य- दो सौ रुपए
   

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ashrutpurva

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