ग़ज़ल/हज़ल सामाजिक सशक्तिकरण

एक ग़ज़ल …..

अंजुम बदायुनी II

मशीख़तों को फ़रोग़ देना  नहीं  है हुस्ने – विक़ार मेरा
न इतनी हल्की ज़ुबान मेरी न इतना नीचा शयार मेरा

ये क़द-बुलन्दी की कोशिशें सब सुकूने दिल को मिटा रही हैं
जो सिमटा, सिमटा वुजूद में है वो ही है  आखिर क़रार मेरा

चमकते चेहरे, संवरते गेसू, मचलते आँचल, बहकते नग़मे
ये  सारे  मन्ज़र  फरेबकुन  थे  बढ़ा   गए   इंतशार   मेरा

मेरा मिज़ाजे-सुकूते-ख़लवत, तेरा ये बहरे-शऊरे-उल्फ़त,
ऐ काश तुझमें उठें वो  लहरें जो बदलें अंदाज़े-कार  मेरा

मैं बे-हुनर हूँ, मैं बे-असर हूँ मगर हूँ तख़लीके-ख़ालिक़े-कुल,
तलाश  मुझमें  मशीयते-रब, मिलेगा  कुछ   इक़तिदार  मेरा

कहाँ ये दुनिया की शर-पसंदी, कहाँ ये “अंजुम” मेरी सदाक़त,
कभी तो आवाज़े – हक़  उठेगी,  कभी तो  होगा  शुमार  मेरा

मशीख़्त : शेख़ी, घमंड,      फ़रोग़ : बढ़ावा
हुस्ने विक़ार : गौरव का सौंदर्य       शयार : रंग-ढंग, तौर तरीक़ा
फ़रेबकुन: धोखा देने वाले,        इंतशार : बिखराव
मिज़ाजे-सुकूते-ख़लवत : एकांत शांति की आदत
बहरे शऊरे उल्फ़त: सभ्य प्रेम का समुद्र,
अंदाज़े कार:कार्य शैली       तख़लीके ख़ालिक़े कुल : ईश्वरीय रचना,    
मशीयते रब: ईश्वर की इच्छा,          इक़तिदार  : प्रभुत्व
शर : बुराई,     सदाक़त : सच्चाई, सादगी,       शुमार  : गणना

About the author

अंजुम 'बदायूनी'

अपना परिचय क्या दूँ। पेशे से इंजीनियर अर्थात कल-पुर्ज़ों से माथा-पच्चीस किन्तु साहित्यिक रूझान यानि नर्मो-नाज़ुक विचारों से आलिंगन। यंत्र और लेखनी की दो विविध विचारधाराओं के आपसी संघर्ष या सहयोग से जीवन को परिभाषित करने की चेष्टा को ही साथियों एवं शुभचिंतकों ने "कविता, नज़्म, ग़ज़ल" जैसी उपमाओं से सुशोभित कर दिया।
बस यही है मेरी छोटी सी पूंजी, "मेरी शायरी" यानि,आपके "बहुमूल्य एहसास और विचार" आपको ही अर्पित करने का तुच्छ प्रयास

तेरा फ़न भी तेरा नहीं 'अंजुम'
तेरे अशआर भी ज़माने के
या यूं कहूं कि,
मेरे अशआर हैं हिस्सास दिलों की दौलत
यह महज़ गाने बजाने का मसौदा ही नहीं

'अंजुम बदायूनी'।

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