रमेशचंद्र शाह II
नाम उनका कादिर मियाँ था, पर पूरे टिकुरिया मुहल्ले में उन्हें कोई इस नाम से नहीं पुकारता था। चिचंडे के अलावा भी कोई नाम उनका हो सकता है, यह हमें शायद ही कभी सूझा हो। चिचंडे एक सब्जी का नाम है, जो तोरई से ज्यादा लंबी और चमकीली होती है। अगर तोरई पर रंदा फेरके सपाट कर दिया जाए और रबड़ की तरह खेंच दिया जाए तो वह चिचंडे की बहन बन जाएगी।
इस नामकरण की शुरुआत कैसे हुई, क्यों हुई और चिचंडे नामक सब्जी तथा कादर मियाँ की शख्सियत के बीच पुल किसने बाँधा, यह शोध का विषय है और मेरे बस का नहीं है। जहाँ तक इस सब्जी का सवाल है, उसका स्वाद में भी नहीं जानता और न जानने की इच्छा रखता हूँ। शुरू से ही मेरे दिमाग में यह बात बैठ गई है कि इससे ज्यादा रद्दी और नामाकूल सब्जी सब्जियों की दुनिया में और कोई नहीं होगी। उसमें एक साबुनी चिकनाई होती है, जो तोरई में नहीं होती। रूप-रंग भी उसका जरा बिदकानेवाला होता है। पर शाम होते-होते उसका तोरई की आधी कीमत पर भी विक पाना मुश्किल हो जाता है। मैं ये ब्यौरे आपको एक ‘इनसाइडर’ की हैसियत से बता रहा हूँ, क्योंकि हमारे यहाँ सब्जियों का ही धंधा होता था और चिचंडों की दुर्दशा का मैं चश्मदीद गवाह रहा हूँ। पर जाने क्यों मुझे लगता है कि अगर इस अभागी सब्जी का नाम चिचंडे नहीं होता, तो इसकी यह दशा न होती। अगर तोरई के ही वजन पर ओरई या गोरई जैसा नाम इसका होता तो सारी चिकनाई और सफेद धारियों के बावजूद लोग इसे उतने ही चाव से खाते जैसे तोरई-लौकी खाते हैं। चिचंडे में अंडे की, और जाने किस-किसकी बू आती है।
तो टिकुरिया मुहल्ले में ही हम लोग भी रहते थे और चिचंडे, यानी कादिर मियाँ भी। टिकुरिया मुहल्ले के तल्ले सिरे का मुआयना अगर आप पिछवाड़े की तरफ से करें, तो आपको हर दरवाजे पर एक टाट लटका मिलेगा। पूरे बाजार में, जो आधा मील लंबा और औसतन समझ लीजिए दस फुट चौड़ा है और कुल नौ मुहल्लों से मिलके बना है, इस तरह के टाट-घर तो आपको इक्के-दुक्के दूसरी जगह भी दिखाई दे जाएँगे। पर एक साथ डेढ़ दर्जन टाटों की इतनी लंबी कतार आपको नहीं मिलेगी। कारण इसका ये कि हमारे टिकुरिया मुहल्ले से लगा हुआ जो नाई बाजार है, वहाँ सिर्फ दुकानें ही दुकानें हैं और उन दुकानों के दुकानदार इन्हीं टाट-घरों में रहते हैं। और मुहल्लों में आपको टाट नहीं, चिकें मिलेंगी। टाट और चिक का फर्क आप समझते ही होंगे। अगर आप बाल काटने, बाल ढकने या खाल उतारने का धंधा करते हैं तो आप टाट ही लटका सकते हैं और अगर आपके पास पासिंग शो या बिल्स की एजेंसी हो तो जाहिर है, कि आपकी दुकान के ऊपर जो मकान है, वह आपका ही होगा और उसके खिड़की-दरवाजों पर चिकें जरूर पड़ी होंगी। चिकें तो यूँ वहाँ भी हो सकती थीं, जहाँ दरवाजा गली से सटा हुआ है; पर वहाँ थोड़ी बेमेल पड़ जाएँगी, क्योंकि टाट का रंग जमीन के रंग से दु जरा भी अलग नहीं दीखता। फिर सँकरी गली से सटे हुए दड़बों पर चिक से ठोक के आप करेंगे भी क्या बाजार की तरफ मुँह हो,कुछ देखने लायक चीजें हों तो चिक का कोई तुक भी है।
तो हमारे कादिर मियाँ भी शायद इन्हीं टाटों में से किसी एक के पीछे रहते होंगे। होंगे इसलिए कहना पड़ रहा है कि हालाँकि हमारा मकान उनकी दुकान की बगल में ही था, वह दुकान यानी मकान किसी और का था और उसका पिछवाड़ा भी टाटवाला नहीं था; तो यह भी तो मुमकिन है कि चिचंडे न महाशय अपनी छहवर्षीय पुत्री सूफिया के साथ उसी दुकान के अंदर रहते हों और इस तरह रहते हों कि टाट की भी गुंजाइश न हो ।

और सचमुच कादिर मियाँ से जुड़ी जो भी आवाजें मेरे कानों में आज भी क गूँजती हैं, वे सब उसी दुकान के भीतर से आती थीं और सुबह पाँच बजे से लेकर रात ग्यारह-बारह बजे तक आती थीं यानी वह दुकान कभी बंद नहीं होती थी और यह तभी संभव है, जब दुकान ही मकान भी हो।
“सूफिया ! ऐ सूफिया कहाँ मर गई। हरामजादी ! दो मिनट दुकान में बैठते जान निकलती है। मार-मार के भुरता बना दूँगा। कहाँ गई थी बदजात !”
“बेटा सूफी ! चल खाना खा ले। अरे मेरी रानी बेटी गुस्सा हो गई क्या ? अब अब्बा की खैर नहीं। अब अब्बा की शामत आ गई। रानी बेटी सूफिया अपने अब्बा को पीटेगी। फिर ये गुलाबजामन कौन और ये रबड़ी कौन खाएगा ? मेरा बेटा खाएगा। मेरा बेटा गरमागरम खाएगा ? गुलाबजामन खाएगा। ये देखो आई हँसी, आई हँसी, आई हँसी आई..”
और इसके तुरंत बाद अगल-बगल के घरों में सूफिया के सचमुच खिलखिलाकर हँसने की आवाज काकादिर मियाँ के बड़ी देर तक गूँजते अट्टहास का सुनाई पड़ना लाजिमी था।
अब आप शायद यह जानने को उत्सुक होंगे कि हमारे कादिर मियाँ काहे दुकान करते थे। आपने सवाल पूछा और मेरी आँखों के आगे मुहल्ले की का नक्शा झूलने लगा। भैरवथान और हमारे नेपाली घर के बीच भिंचा एक दुमंजिला दड़बा और तीन हाथ ऊँची कादिर मियाँ की दुकान, जिसकी छत से पाँच-छह रस्सियाँ लटकी हुईं और उन रस्सियों पर झूलती लाल, हरी, सफेद, पीली रंग-बिरंगी टोपियाँ और नीचे कई चौकोर पेटियों में खुपी सस्ती अँगूठियों की बहार…
जी हाँ, कादिर मियाँ टोपियाँ बनाते थे। सिवा उन गिने-चुने मौकों के, जब वे सूफिया संवाद में निमग्न रहते या जब वे हाथ पीछे बाँधे हुए चूड़ीदार पाजामे और चुन्नटदार हरे कुरते में तेज-तेज कदमों टिकुरिया मुहल्ले की लंबाई नाप रहे होते – कौतुक भरी आँखों से सबकी गतिविधियाँ भाँपते हुए और टिप्पणियाँ जड़ते हुए वे हमेशा टोपियाँ सिलते दिखाई देते थे। उनकी सिलाई मशीन शायद ही कभी चुप बैठती। उसे आराम तभी मिलता जब गले की मशीन चालू हो जाती। दिन में कम-से-कम दो शो इस दूसरी मशीन के होने लाजिमी थे। मैटिनी फटकार शो और ईवनिंग पुचकार शो। ऐसा नहीं कि कादिर मियाँ टोपियों के अलावा और कुछ बनाना ही न जानते हों। हमने अपने बड़ों के मुँह से सुना है कि एक जमाना ऐसा था जब हमारा कस्बा अपने थिएटर के लिए मशहूर था और साल में कम-से-कम साठ-सत्तर नाटक होते थे और उन नाटकों के लिए पोशाक बनाने का जिम्मा कस्बे में सिर्फ च कादिर मियाँ का था। यह तो कादिर मियाँ की, बल्कि हमारे कस्बे की ही बदकिस्मती कहिए कि कोढ़ीखाने के पादरी के साले ने सन 1931 में आके हमारे हनुमना में ‘दरबार’ सिनेमा क्या खोला, देखते-ही-देखते हमारे शहर के पचास साल पुराने थिएटर का पटरा बिठा दिया और कादिर मियाँ धीरे-धीरे बेरोजगार होते गए। बेरोजगारी भी दोतरफा नाटकों के पात्रों की पोशाक सिलने के अलावा वे उनमें माइनर रोल भी अक्सर ही, सुना, कर लिया करते थे। मुझसे एक बार खुद कादिर मियाँ ने कहा था कि ‘बाणासुर’ नाटक में वे खुद बाणासुर बने थे। हाँ, याद आया, जब ‘बाणासुर’ फिल्म लगी थी और मैं स्कूल की तरफ से देखने आया था, तब मुझी से उसकी कहानी सुनके फिल्मवालों की माँ-बहन को याद करते हुए उन्होंने यह जानकारी, अपने अतीत की, मुझे दी थी, जो न तो तब मुझे अतिरंजित लगी थी और न आज-इतने बरसों बाद। मेरे बड़े भाई का तो यहाँ तक कहना था कि अगर कादिर मियाँ फिल्म में गए होते तो चंद्रमोहन को पीट के धर देते।
मुझे याद है, हमारे मुहल्ले का कोई आदमी जब पहले दाँव में कादिर मियाँ
को चिढ़ाने में असफल हो जाता तो उसका दूसरा दाँव इस तरह का होता था-
“यार चिचंडे ! चल रहा है ‘दरबार’ में ? ‘लैला-मजनूँ’ लगी है।” “लैला-मजनूँ की ” चिचंडे एकदम बिफर जाते।
“अरे मैं दिखाऊँगा यार ! तेरी गाँठ ढीली नहीं होगी। तुझे पता है उसमें तेरी सुरैया का डांस है। सहगल के गाने हैं।” कादिर मियाँ नकली हैरत से अपने ‘शैतान’ को घूरते और सुरैया और सहगल को भी उसी बुलंदी से कोसते हुए आगे बढ़ जाते। सभी को मालूम था कि सामने-सामने कादिर मियाँ चाहे जितनी नफरत थूकते हों, रात के सेकंड शो में वे अपनी पसंद की फिल्में चुपचाप देख आते थे। जब मुहल्ले का कोई उन्हें देख लेता और अगले दिन पूछता-‘क्यों चिचंडे ! मजा आया ?’ तो वे तिलमिलाकर कहते-‘तूने अपने बाप को देखा होगा। मैं और फिल्म ! तेरी शामत आ गई क्या ?’
मुहल्ले में कादिर मियाँ की इस रात्रिचर्या का पता सबसे पहले हमीं को चलता था। जिस रात देर तक सूफिया के सिसकने की आवाज आती, हम समझ जाते कि अब्बा फिल्म देखने गए। जिस दिन ऐसा होता, उसकी अगली सुबह और दोपहर कादिर मियों के चीखने-चिल्लाने की आवाज बिलकुल नहीं सुनाई देती।
मुहल्ले में जो सबसे बड़ी दुकान थी वह जिस आदमी की थी, वह हमारा ही बिरादर था। हालाँकि हमारी उससे बोलचाल तक नहीं थी। यह पूरा खानदान अपनी बदतमीजी के लिए मशहूर था और फटफटुवा के नाम से जाना जाता था। लगभग एक-तिहाई सदी से कादिर मियाँ अपना राशन-पानी इसी दुकान से खरीदते आए थे। माहवारी हिसाब चलता था। जरूरत की सारी चीजें उस एक दुकान में सुलभ थीं।
खाने-पीने की दुकान से उधार लेना तो समझ में आता है, पर दर्जी से भी उधारी चल सकती है, यह आपने नहीं सुना होगा। मैंने आपको बताया कि कादिर मियाँ टोपियाँ बनाते थे। ठंडी, गरम, दुपलिया, सफेद लाल-पीली नीली हर तरह की टोपियाँ बनाते थे और मुहल्ले ही क्यों, शहर-भर के नरमुंडों को कादिर मियाँ ही ढकते थे। उस जमाने में नंगे सिर रहना बदतमीजी समझी जाती थी। यह बारहमासी धंधा भी था और मौसमी भी। मुझे याद है एक बार उनकी दुकान सफेद टोपियों से पटी रही थी लगातार कई महीनों तक वह स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव था और हनुमना का गढ़ कांग्रेस ने ही जीता था। फिर दुकान धीरे-धीरे तिरंगी हो चली थी। पर लाली के नीचे बाकी सारे रंग दब गए थे और सचमुच उस साल हमारे यहाँ से जो जीता था वह सोशलिस्ट उम्मीदवार ही था। उससे अगली बार मैं लखनऊ से छुट्टियों में घर लौट के आया तो क्या देखता हूँ कि कादिर मियाँ की दुकान एकदम केसरिया हो गई है। शायद इसी को देखते हुए, लोगों ने और कादिर मियाँ ने भी डंके की चोट पर भविष्यवाणी कर दी थी कि देखना अबकी दीपकवाला जीतेगा और सचमुच वैसा ही हुआ।
और फिर भी इस मौसमी और सदाबहार धंधे के बावजूद कादिर मियाँ हमेशा खस्ताहाल ही नजर आते थे। लोगों का कहना था कि चिचंडे के पास बहुत रकम है और वह सारा खजाना उसने अपनी बेटी के ब्याह के लिए जमा किया है। बीवी कभी की अल्लाह मियाँ को प्यारी हो चुकी थी और सूफिया ही कादिर मियाँ का सर्वस्व थी। पर कादिर मियाँ के लंगोटिया यार लालू सेठ का कहना था और मेरी राय भी यही थी कि चिचंडे बहुत चटोर है और जो कुछ कमाते हैं सब पेट के गड्ढे में डाल देते हैं। पैसे आए नहीं कि फूँके मिठाई के बगैर उनसे रहा नहीं जाता था। खड़े-खड़े आधा सेर रबड़ी चाट जाते थे। कड़की के दिनों में भी उधारी जिंदाबाद-उनका | वही ढंग रहता था। शराब वे पीते थे या नहीं, मैं कह नहीं सकता। पर पैसे उन्होंने किसी के मारे हों, ऐसा कभी नहीं सुना गया।

मुहर्रम के दिनों में कादिर मियाँ टोपियाँ सिलना बंद कर देते थे और मिठाई का खोमचा लगाते थे। जन्माष्टमी के दिनों में जो पंजीरी का प्रसाद बनता था, वह मुझे बेहद पसंद था और वह मुहर्रमवाली मिठाई भी मुझे वैसा ही स्वाद देती थी—बल्कि कादिर मियाँ के हाथ की बनी वह ज्यादा ही स्वादिष्ट’ होती थी। पंजीरी में मेवे का तो सवाल ही नहीं; और कादिर मियाँ अपनी उस खास मिठाई के अंदर ऐसे-ऐसे मेवे डालते थे कि दूसरे खोमचेवाले उनका सपना भी नहीं देख सकते थे। इस खोमचे से उनकी क्या आमदनी होती होगी यह तो वही जानें, पर जिस तरह खोमचा लगते ही हम बच्चे उन पर टूट पड़ते थे और आधा घंटे के अंदर सब साफ कर देते थे और एक हाथ की मुट्ठी में हमारे अधन्ने बटोर के जेब में डालते हुए कादिर मियाँ जिस उल्लास के साथ ‘खेल खतम पैसा हजम’ कहते हुए खोमचा समेटते थे, उसे देखते हुए हमें यही लगता था कि वे मदारी हैं। पूरे बाजार में सबसे बढ़िया ताजिया हमारे मुहल्ले में बनता था और दशहरे के दिन जो नौ रथों का जुलूस निकलता था, उसमें भी हर साल पहला नंबर हमारे मुहल्ले के रावण का ही होता था। कई रातों की मेहनत इसके पीछे हुआ करती थी और आखिरी रात को कादिर मियाँ हम लोगों को जरा जल्दी ही खिसका देते थे। हम सबका यही खयाल था कि हमारे रावण के पहले नंबर का राज उस आखिरी रात की उस आखिरी कारगुजारी में ही निहित था। पूरा हनुमना कादिर मियाँ के इस हुनर का कायल था और खुद कादिर मियाँ को भी इसका पूरा अहसास था।
मामूली कहा-सुनी तो फटफटुवा और कादिर मियाँ के बीच पहले भी होती रही होगी। कौन यकीन करेगा कि जो आदमी अपनी बदमिजाजी के लिए मुहल्लेभर में बदनाम हो और आधे से ज्यादा लोगों को फूटी आँखों भी न -सुहाता हो, ऐसे आदमी के साथ कादिर मियाँ जैसे चुहलबाज और नेकनीयत आदमी की एक-तिहाई सदी के दौरान कभी खटकी ही न होगी। पर उस दिन जो कुछ हुआ, वह कल्पनातीत था।
मुहल्ले में फटफटुवा की गिरी हुई साख का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि सबसे बड़ी दुकान होते हुए भी सिवाय एक कादिर मियाँ के कोई उसके यहाँ फटकता तक नहीं था। बदमिजाजी के अलावा उसके हिसाब की गड़बड़ियाँ भी आम चर्चा का विषय थीं। इसके बावजूद उसके यहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। ये ग्राहक कुछ तो दूसरे मुहल्लों के लोग होते थे, पर ज्यादातर आसपास और दूर-दराज के गाँवों के, जिन्हें लाला फटफटुवा की विशेषताओं के बारे में कोई खास इल्म नहीं हो सकता था।
वह इतवार का दिन था और मैं अपनी दुकान पर बैठा हुआ था। कोई बारह-एक का समय होगा। कादिर मियाँ ऊपर टेढ़ी बाजार से आते दिखाई दिए। पीछे से किसी ने चिढ़ाया- ‘चिचंडे !’ कादिर मियाँ ने पलट के देखा और जिधर से आवाज आई थी उस तरफ मुँह करके चिल्लाए – ‘कौन कम्बख्त सुबे-सुबे अपने बाप को रो रिया है ?’ और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए। इतने में मेरे सामने की दुकान के लाला भीकम सिंह ने भी अरहर तोलते हुए कादिर मियाँ को सुनाते हुए मुझे आवाज लगाई- “लल्ला, जरा दो चिचंडे तो तोलना।” इस पर कादिर मियाँ ने कनखियों में मुस्कुराते हुए मुझे देखा और लाला के पास जाकर जैसे पुचकारते हुए फुसफुसाए– “दो क्या करेगा लाला ? उससे काहे रो रिया है ? मुझसे बोल—मेरा चिचंडा हाजिर है तेरी खिदमत के लिए ! निकालूँ ?” इससे पहले कि भीकम सिंह कोई जवाब लौटाए, खिलखिलाते हुए कादिर मियाँ अपना कुरता लहराते हुए आगे बढ़ लिये। और दिन वे बिना हमारी दुकान पर रुके आगे नहीं बढ़ते थे। चाहे दुकान पर मैं ही क्यों न बैठा होऊँ। पर उस दिन वे सीधे चले गए। एक मिनट बाद ही मेरे कानों में कादिर मियाँ की आवाज पड़ी- “चोप कहू की औलाद !” मेरी समझ में नहीं आया कि इस रोजमर्रा के नाटक में मुहल्लेवालों को ज्यादा मजा आता है कि कादिर मियाँ को ? टोपियाँ सिलते-सिलते वे कम-से-कम तीन-चार बार मुहल्ले के चक्कर जो लगाते हैं, वह क्या सिर्फ इसलिए कि लोग उन्हें चिढ़ाएँ और उन्हें भी हर बार एक नई गाली ईजाद करने का सुख मिले ? उन्हें ऊब भी नहीं होती इस रोजमर्रा के थिएटर से ? अगर किसी एक दिन सहसा मुहल्ले के लोग तय कर लें कि उन्हें कादिर मियाँ को चिढ़ाना बंद कर देना चाहिए, तो कादिर मियाँ क्या करेंगे ?
थिएटर की बात से कहीं आप ऐसा न समझ लें कि कादिर मियाँ कभी सचमुच चिढ़ते ही नहीं थे। चिढ़ते न होते तो चिढ़ाए कैसे जाते। किसी-किसी मूड में उनका लीलाभाव भी बुझ जाता था। खासकर तब, जब कोई ऐसा आदमी उन्हें ‘चिचंडे’ कहे जिससे वे सचमुच नाराज हों या तब, जब वे सूफिया की खोज कर रहे हों या जब उनकी जेब बिलकुल ही खाली हो। ऐसे मौकों पर उन्हें चिढ़ानेवाले की काफी बुरी गत बन सकती थी।
पर उस दिन तो उनका मूड काफी अच्छा लग रहा था और उक्त तीनों कारणों में से एक भी मौजूद नहीं था। उन दिनों एक बार फिर से कादिर मियाँ की दुकान सफेद टोपियों की फैक्टरी बनी हुई थी और शाम के वक्त बिला नागा उन्हें—बाप-बेटी दोनों को—किसना हलवाई के यहाँ दूध-जलेबी उड़ाते हुए कोई भी देख सकता था।
मेरे पास से गुजरे उन्हें पाँच मिनट भी नहीं हुए होंगे कि जोरों का एक हल्ला सुनाई दिया और कादिर मियाँ का चीखना। मैं उस वक्त सचमुच चिचंडे तोल रहा था। एक सेकंड में मेरी समझ में आ गया कि चिचंडे और फटफटुबा के बीच जोरों की ठन गई है। ग्राहक को निपटाकर मैं दुकान से कूदा तो क्या देखता हूँ कि दोनों फटफटुवा ब्रदर्स कादिर मियाँ पर पिले हुए हैं और तड़ातड़ उन्हें मारे जा रहे हैं और कादिर मियाँ अपने को सँभालने की कोशिश करते हुए चीखते हुए गालियाँ बके जा रहे हैं। अगले ही क्षण मैंने देखा, कादिर मियाँ अपनी दुकान की ओर भागे जा रहे हैं और एक फटफटुवा थोड़ी दूर तक उनका पीछा करके वापस लौट रहा है। मुहल्ले के सारे दुकानदार अपनी दुकानों के आगे खड़े तमाशा देख रहे हैं। सुरेंद्र की दुकान के आगे चार-पाँच लोग जोर-जोर से बहस कर रहे थे। मैं भी नजदीक जाके उनकी
बातचीत सुनने लगा- “देखो, साले दो-दो चिपटे हुए थे हरामजादे !”
“गाली पहले चिचंडे ने दी।”
“क्या गाली दी ? फटफटुवा कहा होगा और क्या ?”
“नहीं। चीनी लेने गया था। कहा, अरे फटफटुवा ! डंडी तो मत मार। इस पर छोटे फटफटुवा ने कहा—जबान सँभाल के बोल बे चिचंडे !”
“फिर ?”
“फिर चिचंडे ने कहा—चिचंडे तेरा बाप होगा। इतने में बड़ा भाई भीतर से निकलकर आया और बोला-साले का सौदा बंद कर दो। चल साले, अभी इसी वक्त हमारा दो महीने का हिसाब चुकता कर।
“अच्छा तो फिर चिचंडे क्या बोला ?”
“चिचंडे सारे मुहल्ले को सुनाते हुए चीखने लगा-देखो, साले कल के छोकरे मुझे धौंस बता रहे हैं। अरे सालो, तुम्हारे बाप के जमाने से सौदा खा रहा हूँ। कभी एक पैसा भी, तुम्हारा बकाया रक्खा हो, कोई कहके तो देखे जरा ।
“बड़े फटफटुवा से तो इसकी बहुत ही पटती थी।”
“फिर चिचंडे ने चीनी का पूड़ा ‘ऐसी की तैसी इस फटफटुवे की’ कहते हुए दुकान में फेंक मारा। बस, बड़ा भाई आपे से बाहर हो गया और बाहर निकल के उसने चिचंडे को कालर पकड़ के इतनी जोर का धक्का मारा कि चिचंडे जमीन पर गिर पड़ा। उसने उठके उसे माँ की गाली दी और एकाध हाथ भी रसीद कर दिया। बस, फिर दोनों भाई चिचंडे पर टूट पड़े।”
“नाक से खून बह रहा था। तुमने देखा ?”
“इतने सारे लोग खड़े तमाशा देख रहे थे ? जब फटफटुवा ने धक्का दिया तो तुमने रोका क्यों नहीं ?”
“मैं क्यों बीच में पहूँ ? गाली खानी थी क्या ?” आँखों देखा, कानों सुना हाल इतना ही है। सुना, बाद में लोग एक-एक करके कादिर मियाँ के पास जमा हुए और हरेक ने उन्हें यही राय दी कि थाने में रपट कर दो। फटफटुवा के मारे मुहल्ले में जीना हराम हो गया है। कुछ तो सबक मिले उसको।
सुना, सबकी सलाह सुनने के बाद कादिर मियाँ ने लोगों से कहा- “ठीक है मैं रपट लिखाता हूँ, आप लोग भी जिनने देखा है, मेरे साथ चलिए। “
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं “क्यों नहीं” करते हुए सुरेन, महेन, भीकमसिंह, टीकम सिंह और सारे शुभचिंतक खाना खाने चले गए। कादिर मियाँ ने सफेद टोपियों का गट्ठर बाँधा और घंटा-दो घंटा इंतजार करके निकल पड़े। दिन-भर सूफिया अकेली सिसकती रही। रात काफी देर में कादिर मियाँ लौट के आए और फटफटुवा को नींद से बाहर निकाल के उसका हिसाब चुकता कर दिया।
सुबह पूरे मुहल्ले ने आश्चर्यचकित होकर देखा—कादिर मियाँ की दुकान खाली पड़ी है और बाप-बेटी दोनों का कहीं पता नहीं है।
पता चला, इस्माइल अलीगढ़वालों ने अपनी कोठी में एक कमरा खाली करके कादिर मियाँ को दे दिया है। इस्माइल अलीगढ़वाले हमारे कस्बे के रईसों में हैं। ‘पासिंग शो’ की एजेंसी है उनके पास उसके बाद हफ्तों तक कादिर मियाँ हमारे मुहल्ले में नहीं दिखाई दिए और एक दिन सबने सुना, वे अपनी सूफिया को ले के शहर छोड़ के चले गए।
इस्माइल साहब का कहना था कि कादिर मियाँ को उनके किसी रिश्तेदार ने काशीपुर में दुकान खुलवा दी है। पर मुहल्ले के लोगों का, खासकर लालू सेठ का, कहना था कि इस्माइल अलीगढ़वालों से कादिर मियाँ की कभी पट ही नहीं सकती थी। कादिर मियाँ उस हादसे के बाद न तो मुहल्ले में रहना चाहते थे, न इस्माइल खाँ साहब का अहसान उठाना चाहते थे। लिहाजा उन्होंने शहर ही छोड़ दिया।
भगवान जाने सच्ची बात क्या थी। मुझे सिर्फ इतना याद है कि उस साल दशहरे में हमारे मुहल्ले का रावण नहीं बना। नौ की जगह सिर्फ आठ रावणों का जुलूस निकला।