डॉ. परमजीत ओबेराय II
‘देखा, कैसे सारा कम अपने आप और जल्दी से कर लेती है?’
रीटा के माता-पिता बहुत गर्व से कहते हैं। अपनी आकर्षक छवि एवं व्यवहार के कारण रीटा बचपन से ही सबकी प्रिय रही। नहीं, मैं तरबूज का बीच वाला भाग ही खाऊंगी, सुनते ही पिताजी स्नेह से तरबूज की प्लेट रीटा के आगे खिसका देते। अच्छी तरह से सेंका गया परांठा व चाय उन्हें प्रिय था। परिवार के एक एक सदस्य ने उन्हें अपना अपूर्व सहयोग दिया था। अच्छा, पिताजी कल से मुझे साइकल चलाना सिखाएंगे न? ठीक है…पिताजी का कहना था कि वे फूली न समाई। भैया, आप मुझे फिर कार चलाना सिखाएंगे न? भैया ने अपना सर हिलाया और कहा, यह तो बताओ कि गणित की परीक्षा कैसी थी? रीटा ने कोई उत्तर नहीं दिया। मेहनत करो, सब ठीक होगा। माताजी ने स्थिति को संभालते हुए कहा, गणित में थोड़ा हाथ तंग था किंतु यह उनके लिए बाधा न बना।
घर में कोई भी चीज आती तो सबसे पहले चुनाव रीटा ही करतीं। माता-पिता का अपार स्नेह, बड़े भाई द्वारा उचित मार्गदर्शन करना, छोटी बहन का सखी सा व्यवहार उन्हें ईश्वरीय देन से कम न लगता था।
नीना, तुमने इतनी अच्छी बातें किससे सीखीं। रीटा ने झट से भैया की ओर संकेत किया। शाम को नीना के घर आने पर जब रीटा के भैया ने उसका आदर करते हुए कहा, आइए दीदी, बैठिए। रीटा और नीना ने गर्व महसूस किया। नीना ने भैया को धन्यवाद दिया। रीटा के भैया के दीदी कहने के पीछे का भी एक रहस्य था कि जब एक बार भैया के दोस्त आए थे तब भैया ने अपनी छोटी बहन को अपने दोस्तों को भैया कहने की सलाह दी, तब रीटा ने भी मौके का फायदा उठते हुए स्वयं को दीदी कहने की शर्त मनवा ली थी।
बचपन से ही पढ़ने,बोलने और जीवन मूल्य समझने में वे अपने स्तर से आगे ही रहीं व सदैव आगे ही बढ़ती रहीं। साधारण से सरकारी विद्यालय से शिक्षा पाकर यह रीटा का सौभाग्य था कि उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रसिद्ध कॉलेज में दाखिला मिला था। दिल्ली के हिन्दू कालेज में प्रवेश पाना उनके लिए एक असाधारण उपलब्धि से कम था। अंग्रेजी की कक्षा के बाहर अपनी अध्यापक डायरी लिए देदीप्यमान, हंसमुख, अपूर्व प्रतिभा के धनी, सब में प्रिय, आकर्षक व्यक्तित्व लिए, जिनकी कक्षा का सभी बेसब्री से इंतजार करते दिखाई देते थे वे थे रीटा के अंग्रेजी अध्यापक। अपने गुरुजी से प्रेरणा पाकर उन्होंने शादी के बाद बच्चों की जिम्मेदारी निभाते व साथ-साथ अध्यापन कार्य करते हुए पीएचडी की डिग्री प्राप्त की, इसे वे भगवान की अनुकंपा ही मानती हैं।
पीएचडी की डिग्री पाने वाली वे ही केवल अपने परिवार में एक थीं। एक बार उन्होंने अपने पिता जी से पूछा, पिताजी आपने मेरा थीसिस अपनी अलमारी में संभाल कर क्यों रखा है? पिता जी ने कहा, बेटी एक तू ही तो है जिसने हमारे परिवार में पीएचडी की है। वास्तव में उनके शोध ग्रंथ की एक प्रति उनके पिताजी ने अपनी निजी अलमारी में रखी थी ताकि वे जब चाहें देख सकें व जिसे चाहें उसे दिखा सकें।
आज मेरा एमफिल साक्षात्कार है और आज हल्दी की रस्म भीी है मां। रीटा ने कहा। मां ने कहा, कोई बात नहीं तू अपने भाई के साथ चली जाना। … भैया जल्दी से कार दरवाजे के आगे तक ले आए और रीटा प्रसन्नचित होकर बैठ गई। कुछ स्त्रियां कह रहीं थीं, ‘देखो शादी के दिन हैं, लड़की को बाहर नहीं जाना चाहिए। रीटा के परिवार वालों ने सुन कर भी अनसुना कर दिया।
एक सहयोगी ने पूछा, रीटा अध्यापन के साथ लिखने के लिए इतना समय कैसे निकाल लेती हो? रीटा ने कहा, लेखन तो मेरी खुराक है, जिससे मुझे संतुष्टि मिलती है। नियमित रूप से आॅनलाइन पत्रिकाओं में भी आपकी कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं, देख कर अच्छा लगता है, अक्सर रीटा के शुभचिंतक उन्हें कहते थे।
उनके पति पहले से ही जहां अध्यापन का कार्य कर रहे थे वहीं रीटा को भी अध्यापन का अवसर मिला। चार साल अध्यापन करने के बाद वह अपने पति के साथ विदेश में अध्यापन के लिए चली गईं। जहां आकर पढ़ाना उनके लिए सचमुच चुनौतीपूर्ण था, किन्तु अंग्रेजी बोलना व समझना तो वे पहले भारत में ही सीख चुके थे ,जिसका लाभ उन्हें यहां मिला।
यहीं से रीटा ने हिंदी कविता को सुचारू रूप से लिखना शुरू किया। एक लंबे अंतराल के बाद उन्होंने विदेश छोड़ कर अपने देश भारत में अपने माता-पिता जी के पास जाने का निर्णय लिया किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। तीन माह का इस्तीफा पूर्ण होने से पहले ही दुर्भाग्यवश उसके माता-पिता का देहांत हो गया किसके कारण उन्हें दो बार भारत जाना पड़ा। अब तो उनके समक्ष विपत्ति के काले बादल मंडराने लगे। होनी को जो मंजूर था, होना ही था।
भारत आकर उन्होंने अध्यापन कार्य जारी रखा किंतु माता-पिता की याद उसे सदैव सालती थी। सुनिए, आज ही प्रीता का फोन आया था कि अगर आप दुबारा स्कूल ज्वाइन करना चाहते हैं तो आ सकते हैं। ठीक है, उनके पति ने कहा। यहीं वे पहले भी पढ़ाते थे। याद है पहली बार नंदू के पैदा होने के बाद मैं उसे यहीं लाई थी, रीटा ने कहा, हां और तुम्हें पीएचडी की डिग्री भी तभी मिली थी। रीटा के पति ने कहा, आज लगभग 18 साल के बाद उसी विद्यालय में मेरा पुत्र ग्यारवीं कक्षा में प्रवेश लिया पर अब बाहरवीं कक्षा पूर्ण होने के बाद तो घर सूना हो जाएगा, रीटा सोच कर घबरा जाती थीं।
मुझे ईश्वर ने किसी चीज की कमी न होने दी। गुणवान पति है, एक पुत्र और एक पुत्री भी है। रीटा ने अपने आप से कहा, जीवन में हम अपने बल पर आगे बढ़े हैं। पुत्री अब विवाहिता है। उसके पति होटल में मैनेजर पद पर कार्यरत हैं। चिंता है तो केवल अपने पुत्र की कि वह बारहवीं के बाद किस क्षेत्र में जाकर अपना भविष्य बनाएगा। उनके पति ने कहा।
रीटा ने गंभीर स्वर में कहा, केवल मनुष्य के सोचने से ही सब कुछ वैसा ही नहीं होता याद है न जब हमने कुछ वर्ष पूर्व अपने माता-पिता के पास भारत जाने का निर्णय लिया था और हमें निराशा ही हाथ लगी थी तो क्या निराश हुआ जाए? उनके पति ने कहा। इस पर रीटा बोली, आप सच कहते हैं, जीवन के अनुभव हमें धैर्य रख कर आगे बढ़ना सिखाते हैं।
मेहनत करने और बड़ों के आशीर्वाद से जीवन में सफलता मिलती है, अपने पिता का यह वाक्य आज रीटा सभी को बताकर गर्व महसूस करती हैं। बेटे ने कहा, मां, आप अब थोड़ा आराम भी किया करें।
जीवन के ५४ वसंत देखने के उपरांत शारीरिक रूप से थोड़ा अस्वस्थ होने पर भी मैं नहीं घबराती। लिखने से मुझे अच्छा लगता है इससे मेरे लेखन कार्य में कोई बाधा नहीं आती। इसे तो मैं भगवान व अपने बड़ों की कृपा ही समझती हूं, रीटा ने बहुत धैर्य के साथ अपने पुत्र को कहा।
हमें प्रतिदिन प्रार्थना करना नहीं भूलना चाहिए। रीटा अक्सर अपने बच्चों को समझाती थी। …आप कितने वर्ष की हैं? एक शिष्य ने पूछा। ५४ वर्ष की, रीटा ने उत्तर दिया। सुनकर वे अचंभित हो उठे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, जीवन में बहुत सी कठिन परिस्थितिओं का सामना मैंने ईश्वर आस्था के बल पर किया। बचपन से ही घर के आध्यात्मिक वातावरण के कारण सुबह-शाम प्रार्थना करना मेरी दिनचर्या बन गई थी। इसमें भी मेरे अग्रज का हाथ रहा। उनके धार्मिक एवं घुमक्कड़ प्रकृति के कारण मुझे उनके जीवन के बहुत से अनुभवों से अनुभव लेने का अवसर बराबर मिलता रहा। उनके शिष्य उनकी जीवन संबंधी बातें सुनना पसंद करते थे।
वे कभी-कभी स्वयं से बातें करतीं, आज जब उनके बच्चे बड़े हो गए हैं, कहने को अब ज्यादा जिम्मेदारी नहीं है पर आज भी आंखें रात को सोते समय नम क्यों हो जाती हैं? यह सोच कर कि जिस ईश्वर ने मुझे इतना सब कुछ दिया, क्या उनके धन्यवाद के रूप में मैंने ईश्वर स्मरण रूपी पूंजी एकत्र की है? कहते हैं न जो दिल से पवित्र होता है उसका भला होता है या यों कहें कि चेहरा आईना होता है-उक्ति रीटा के व्यक्तित्व को परखने पर सही उतरती है। आज भी उनके शिष्य उन्हें बहुत आदर देते हैं, यह उनके स्नेही व्यक्तित्व के ही कारण संभव हो पाया। आज भी उन्हें उनके बहुत से शिष्य मिलने आते हैं जिनके साथ उनका संबंध गुरु-शिष्य से अधिक मित्र-सा अधिक है।
वे अक्सर कहा करतीं, केवल पैसों से शोहरत नहीं मिलती, विनम्रता ही सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा का साक्षात प्रमाण है, हां अध्यापिका जी, शिष्य ने कहा। रीटा सदा अपने मित्रों से कहतीं, हम घर-बाहर की जिम्मेदारियों में व्यस्त रह कर उस पभु की आराधना करनी भूल से जाते हैं, जिनकी अपार कृपा से हमें यह मनुष्य जन्म मिला है। ऐसी बातें आज तक मैं सुनती आई थीं किन्तु उम्र के बढ़ते पड़ाव ने आज मुझे सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि क्या वास्तव में जिस पुत्र-पुत्री से मैं अपार स्नेह करती हूं, शायद आने वाले समय में उनके पास अपनी मां के लिए भी अधिक समय न होगा, सोच कर मेरा हृदय क्रंदन कर उठता है जिसका अनुमान केवल मेरे पति ही मेरे साथ लगा पाने में समर्थ हो सकते हैं। यही जीवन है कुछ समझ आ गया है व कुछ समझ आ जाएगा, इसी सोच के साथ अपने मैं अपने कार्य में रत रहती हूं। उनका मूल मंत्र सबको प्रेरणा देने वाला है, मेहनत करें, बड़ों का आशीर्वाद पाएं, ईश्वर का आशीर्वाद मिल ही जाएगा, जो सफलता रुपी द्वार को खोल देगा यही जीवन का सच है।