धारावाहिक कहानी/नाटक

अरण्य लीला (धारावाहिक नाटक-अंतिम भाग)

चित्र: गूगल साभार

योगेश त्रिपाठी II

वह आत्मीय दृष्टि से देखता हुआ लौट आता है । मां के बगल में लेट जाता है ।
राजीव : होते हैं पिता ऐसे ही … जल्दी कुछ बोलते कहां हैं ! … सिर्फ मंद-मंद मुस्काते हैं । अगली सुबह जब मां नहाकर वासुदेव को जल चढ़ाने आई तो पीपल के पौधे को देखकर लजा गई । पीपल भी जैसे हिलोरें ले रहा हो । जल चढ़ाया फिर पत्तों को झिझकते हुए छुआ । वही छुअन । वही सिहरन । चाहकर भी हाथ नहीं हटा सकी….
वनलताएं गाती-नाचती हैं ।
गीत : नित उठि भोर सुरुज नहबाबै, गोंइड़े पीपर लहराय ।
पूत बसामन पीपर पूजै, सुमिरै सीस नवाय ।।
नइ-नइ डारि बिरिछ कै बाढ़ै, चीकन पात हहराय ।
धीरे-धीरे पूत बड़ा होइ आंए, माता कह दुलराय ।।
मंच पर बसावन और उसकी मां ।
पुजारी : मां ! मां !
मनो : क्या है बेटा ?
पुजारी : मां, मैं पिता के सारे भाइयों को पानी दे आया ! सब खूब बड़े हो गए हैं मां ! उनके चौड़े-चौड़े हरे-हरे पत्ते खूब सुंदर लग रहे हैं ! मां सतधार की गढ़ी पर चढ़के देखो तो चारों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखती है !
मनो : सतधार की गढ़ी गया था क्या ?
पुजारी : नहीं मां । पर तुम चलो न, तो वहां से देखें !
मनो : अरे मेरे इतनी हिम्मत नहीं है कि इतने ऊंचे चढ़ें ! सुन बेटा, अब बखत आ गया है कि तुम हमारा एक कहा मान लो !
पुजारी : लो ! अभी तक नहीं मानते आए हैं का ? बोलो न ! जो कहोगी वो करूंगा !
मनो : तो सुन ! मैं बूढ़ी हो रही हूँ… मैं चाहती हूँ कि तेरा ब्याह हो जाये । तीन साल बाद गौना हो जाएगा । अब मैं कुछ सुनने वाली नहीं हूँ …
मां अंदर जाती है । बसावन चिंता में पड़ जाता है ।
पुजारी : जो आज्ञा मां !
बसावन भी अंदर जाता है ।
राजीव : बसावन को ब्याह में कोई रुचि तो थी नहीं । वो तो ब्याह इसलिए कर रहा था कि मां को खुशी मिल रही थी । उसे बस एक ही चिंता थी, कि वह जब ब्याह कराने ससुराल जाएगा, तब उसके पिता और उनके भाई बंधुओं की रक्षा कौन करेगा ? मां सयानी है, इधर-उधर काम करती रहती है, कोई मवेशी चर गया तो ? दूसरा कोई ऐसा नहीं था, जिसे वह ये जिम्मेवारी दे सके । विवाह का दिन आया, बारात रवाना हुई, परंतु बसावन का पूरा ध्यान अपने पिता पर ही था……
राजीव जाता है । वनलताएं विवाहगीत गुनगुनाने हुए झूमने लगती हैं । पीले रंग का जामाजोरा पहने बसावन आता है । मां उसे देखकर बलैयां लेती है ।
मनो : कजरौटा रखे रहना संघे । कहीं नजर न लग जाए !
बसावन : मां, बाबा का ध्यान रखना ! और उनके भाइन का भी ! उन्हें कोई नुकसान न पहुंचे ! उन्हें नहला भी देना ! भूलना नहीं मां !
मनो : अरे हां हां ! मुझ पर भरोसा रख बेटा… मैं पूरा ध्यान रखूंगी ! चलो आओ रे, परछन कराउ ई जाये !
मनो, वनलताओं के साथ परछन कराती है ।
परछन गीत : अंचरा भितर कइ लेय नजरिया लागि जइही रे ।
अरे बनरा बबुल जी का पियार,
माया के आंखी का तरई ।
अरे बनरा काकाजी का पियार,
काकी के आंखी का तरई ।
नगरिया-ढोल बजती है ।
राजीव : बारात चली गई । उन दिनों बारात कम से कम तीन दिनों बाद लौटती थी और इन तीन दिनों के भीतर ही यहां इस गांव में बरस गया तूफान !
वनलताएं : धि न ध न न धि न… धि न ध न न धि न …….
राजीव : संयोग या दुर्योग, उसी समय बांधवगढ़ के राजा भेददेव शिकार खेलने के लिए पास ही सतधार की गढ़ी में डेरा डाल लिए । राजा के करिंदे ऊंटन के लिए भोजन की तलाश में निकले । गर्मी का मौसम था, उन्हें गांव में हरे-भरे पीपर के पेड़ दिखे तो उन्हें काटने लगे । बसावन की मां ने सुना कि बाहर कुछ शोर हो रहा है । दौड़कर बाहर आई…
मनो : अरे ! तुम लोग कौन हो ?
राजीव करिंदा बन जाता है ।
राजीव : अरे ओ सुर्रा !
पुजारी हाथ में टांगी लिए करिंदा -2 बनकर आता है ।
पुजारी : हां बोलो !
राजीव : अरे उधर कहां भटक रहे हो ? इधर देखो न ! कित्ते कोमल –कोमल पीपल के पेड़ खड़े हैं ! काट डालो इनको !
पुजारी : अरे ई तो बहुत सारे हैं ! ऊंटौ खुस होइ जइहैं ! अबहिनै काट डालते हैं !
करिंदे पेड़ काटने को तैयार हैं, अंदर से मां आती है ।
मनो : ए ए ए…. ! का कर रहे हो तुम लोग ? का कर रहे हो ?
राजीव : पेड़ काट रहे हैं और क्या कर रहे हैं ?
मनो : कौन हो तुम लोग ? इस गांव के तो नहीं लगते ?
पुजारी : अरे हम लोग बांधोगढ़ से आए हैं । राजा साहब का डेरा पड़ा है गढ़ी में । उनके ऊंटन को खिलाने के इंतजाम में लगे हैं !
मनो : देखो बेटा, तुम्हें जानवरों को खिलाने के लिए बहुत झाड़ी-झंखार मिल जाएंगे, वासुदेव के पेड़न को छोड़ दो । इन्हें मेरा बेटा बसावन बहुत मानता है, इन्हें मत काटो ।
राजीव : अरे बुढ़िया, राजा के ऊंटन को का खिलाना है, का नहीं खिलाना है, हमको पता है ! हरियर-हरियर पीपल के पत्ता छोड़के हम झाड़ झंखार काटें ?
मनो : अरे मुरुखो, धरम-करम मानते हो कि नहीं ? ये वासुदेव हैं वासुदेव ! साच्छात भगवान ! … इन्हें काटने पर पाप लगता है । मैं कहती हूं मत काटो इनको ! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं पैर पड़ती हूं मत काटो हमरे वासुदेव को !
राजीव : चुप कर बुढ़िया, सरकारी काम में अड़ंगा मत डाल !
मां को धक्का देते हैं तो वह गिरकर बेहोश हो जाती है ।
पुजारी : काट डारो सगरे हरियर पेड़न को, रोज-रोज आने का टंटा ही न रहे !
राजीव : चलो !
काटने लगते हैं । वनलताएं कारुणिक गीत गाती हैं ।
गीत : कर न जुलुम ऐसे, ओ रे कसाई
काहे को तू काटे, बिरवन को रामा
अपने अधार का ज, अइसे मिटइहा
कसके चलउबे तूं बंस हो रामा
पउबे सराप तूं पिपरा का काटे
मरबे तूं देखे बिनु पुतबा का रामा
वनलताएं चारों तरफ तड़पने का अभिनय करते हुए शांत होती हैं । मनो को होश आता है । सारे पीपल के पेड़ कट चुके हैं । मनो दृश्य देखकर विह्वल होकर रोती है ।
मनो : मोर बप्पा ! सगले पिपरन को काट डाले कसाई ! मोर दइउ ! है कौनो सुनने वाला ! ई अन्याय ! ई अत्याचार ! फलेगा न तुमको कहे देते हैं ! (दूर नगरिया सुनाई देती है ।) बरात लौट रही है ! का होगा जब बसावन ई सब देखेगा ! हे भगवान … रक्षा कर !
वनलताएं व्याकुलता का अभिनय करती हैं ।
गीत (वनलताएं) : का होगा का होगा, कैसे बसावन, देख सहेगा रे चोट !
का होगा का होगा, कैसे बसावन देख सहेगा रे चोट !
(मनो) : जिनको सींचा, ढोय ढोय पनिया,
बाड़ लगाई चहुं ओर रे
बाप समझ के सेवत जिनको,
कइसे सहेगा बियोग रे……
(वनलताएं) : का होगा का होगा, कैसे बसावन, देख सहेगा रे चोट !
का होगा का होगा, कैसे बसावन देख सहेगा रे चोट !
बारात की नगरिया आक्रोश में बदलती जाती है । वनलताएं हाथ में परछन की सामग्री लिए मनो के पास आ जाती है । पुजारी बसावन के रूप में जामाजोरा पहने हुए बदहवास-सा आता है । नगरिया रुक जाती है ।
पुजारी : मां….. ! क्या हो गया ये सब ? पालकी जब गांव के पास आई तभी हम देखे, पूरा गांव जैसे सूना हो गया ! जहां चारों तरफ कतार से हरियाली दिखाई देती थी, वहां सब उजाड़ हो गया ! और ……… हमारे बाबा ……
पीपल पौधे के बचे हुए ठूंठ को सहला-सहला कर रोने लगता है । मनो भी फूट-फूटकर रोने लगती है ।
कौन किया ये मां ? कौन ऐसा निर्दयी आया जिनको हमारे बाबा पर कुल्हाड़ी चलाते तनिकौ दया नहीं आई ? माल-मवेशी तो ऐसा नहीं कर सकते ! जरूर ये किसी मनुष्य ने ही किया है ! मां, तुमने उनको रोका नहीं ? क्या तुम घर में नहीं थीं ? क्या तुम घर के काम में इतनी मगन हो गईं कि हमारे बाबा की चिंता ही भूल गई ?
मनो : नहीं बेटा, हम घर में ही रहे थे, हम घर के काम में मगन भी नहीं हुए रहे । हम इनकी तकवारी ही कर रहे थे लाला लेकिन कुछ दरिंदे आए और जबर्दस्ती इनको काट डारे बेटवा !
पुजारी : कौन ? कौन रहे वो मां बताओ मुझे ? हम उनको मार डारेंगे….जिंदा नहीं छोड़ेंगे मां बताओ…..
मनो : बेटवा, सतधार की गढ़ी में राजा का डेरा पड़ा है । उसके करिंदा आए रहे । राजा के ऊंटन के खातिर सगले वासुदेवन को उन्होंने काट डाला रे ! हम बहुत रोके…. बहुत रोके… जब हाथ पकड़ लिए तो हमको ढोंस दिया.. हम जाके वहां गिर पड़े रहे बेटवा, बेसुद्ध हो गए … सब काट ले गए बेटवा……
पुजारी : बाबा ! हम तुम्हरा बदला लेंगे ….. हम तुम्हरा बदला लेंगे…… हम छोड़ेंगे नहीं उन कसाइन को !
बाहर की ओर दौड़ जाता है, वनलताएं हरहराने लगती हैं ।
मनो : बसावन ! बसावन ! रुक जा बेटा ! परछन तो करा ले !
वो भी तेजी से बाहर को जाती है । वनलताओं का उद्वेगमय नर्तन ।
गीत : अरे जामाजोरा पहिरे बसावन,
गढ़ी का सरपट जाय हो मां ।
पाछे-पाछे चली हो माता,
कोउ सखि चलै बचाय हो मां ।
को जानै ऊ का कइ डारै,
कोऊ चलै समझाय हो मां ।
परिछन तक ना परखिस लड़िका,
का जानी का होई हो मां ।
उफनत गरजत, दयू अस तड़पत,
पहुंचा गढ़ी दुआर हो मां ।
पहुंचा गढ़ी दुआर हो मां ।
पहुंचा गढ़ी दुआर हो मां ।
पहुंचा गढ़ी दुआर हो मां ।
पहुंचा गढ़ी दुआर हो मां ।
वनलताएं शांत होती हैं । बदहवास पुजारी (बसावन) गढ़ी के सामने पहुंचता है । वहां चौकीदार (राजीव) खड़ा है ।
राजीव : कौन हो तुम ? बाम्हन लगते हो । ऐसे फनफनाए काहे हो ?
पुजारी : कहां है तुम्हारा राजा ?
राजीव : राजा ? का काम है राजा से ?
पुजारी : राजा से मिलना है ।
राजीव : राजा से मिलना है ! हा हा हा… पूरा पगलै लगता है ! जा-जा ! तू राजा से नहीं मिल सकता !
पुजारी : (चीखता है ।) राजा !!!
वनलताएं : राजा !!!
पुजारी : निकलकर बाहर आ ! … बता, तूने हमारे बाबा को क्यों काटा ? हमारे गांव के सगले पेड़न को़ क्यों कटवा डाला राजा ? उनने का बिगाड़ा था तेरा ? जवाब दे ?
राजीव : अरे अरे अरे ! हियां हल्ला करना मना है ! चल भाग यहां से !
बसावन क्रोधित होकर रोने लगता है ।
पुजारी : मेरे बाबा को मार डाला ! क्या बिगाड़ा था मेरे बाबा ने तुम्हारा ? मुझसे मिलने के लिए दोबारा जनम लिया तो तुमने मार डाला ! बहुत बड़ा पाप किया है ! बहुत बड़ा पाप किया है ! अब हम इसका बदला लेंगे !
वनलताएं : अब हम इसका बदला लेंगे !
पुजारी : आत्मा, बरम बनकर अपने दुश्मनों से बदला लेती है । चैन से न खुद रहती है, न ही रहने देती है । सुन राजा ! अगर मेरी पुकार तू नहीं सुन सकता, तो मैं अभी अपनी जान दे देता हूं । लेकिन इतना समझ ले, …..
पुजारी-वनलताएं : …. कि तू भी जिंदा नहीं रहेगा !
राजीव : अरे अरे क्या कह रहा है ! ए ! रुक तो !
वनदेवियां : धरती के धूधुर माथे लगावै, भुइं का माथा लगाय ।
पूत बसामन चोखि कटरिया, पेट मां लिहिन हलाल ।।
पुजारी, अपने पेट में कटारी भोंक लेता है ।
वनलताएं : हा हा हा …… हा हा हा ……
राजीव : हे भगवान ! इया बाम्हन लड़िका तो मनुसमारी कर लिया ! राजा को पता चला तो बहुतै नराज होंगे । अब का करें…. का करें….
चौकीदार बसावन के मृत शरीर को घसीटकर ले जाता है । वनलताओं का उद्वेगमय नृत्य ।
गीत : लोहू के धार फरिकबा बूड़िगा, अंगने मा छींटा जाये
गांव गइल मां रोमन पीटन, मचिगै किलित ओ भाय
चारिउं कइत चर्चना बगरी, राजा मां दोस लगाय
मारि कटारी मरिगा बाम्हन, राजा कुन्यायी जाय
राजीव : नहीं रही ये कौनो साधारन घटना ! एक गरीब बाम्हन लड़िका, राजा के गलती से मनुसमारी कर लिए रहा । और उसकी महतारी मारे गम के पागल होइ गई । इतना ही नहीं, बाम्हन ने मरते-मरते राजा को सरापा भी । बात फैली तो राजा के कान तक जा पहुंची । बहुत पश्चाताप हुआ उसको और एक दिन… बिना कौनो रोग-ब्याधि के राजा मर गए ! हाहाकार मच गया । स्थापित हो गया कि ये बदला लिया है उस ब्राह्मन कुमार ने बरम बनकर । राजा भेददेव की दूसरी रानी उस समय मइके चित्तौड़गढ़ में गर्भवती थी । यहां का समाचार वहौं पंहुचा । रानी शोक में डूब गईं ।
वनलता 1 रानी बनकर चीत्कार करती आती है । उसकी दासी मालती छोटे से राजकुमार को गोद में ली हुई है । दो भाई उसे संभालने की कोशिश करते हैं ।
भाई 1 : बहन जू, आपको बांधोगढ़ चलना होगा ।
रानी : नहीं…. कभी नहीं जाऊंगी…. वो बरम हमें भी मार डालेगा… वो हमसे भी बदला लेगा…. हम बांधोगढ़ कभी न जाएंगे ! कभी नहीं…..
भाई 2 : लेकिन बहिन जू, लोग क्या कहेंगे ?
रानी : कहें जो कहना हो, हमें उनके वंश की रक्षा करनी है ।
मालती नन्हें राजकुमार को रानी की गोद में देती है । सभी अंदर की ओर जाते हैं ।
राजीव : रानी बांधोगढ़़ आने को तैयार नहीं हुईं । बांधवगढ़ की गद्दी सूनी थी । दीवान आदि राजकाज संभाल रहे थे, जो प्रजा की कम, अपनी चिंता ज्यादा करते । कुछ हितैषी लोग चित्तौड़गढ़ आए, रानी को समझाने की कोशिश की, पर सब बेकार । मायके वाले भी तैयार नहीं हुए । एक रही रानी की दासी – मालती जो पूजा-पाठ में बहुत विश्वास करती थी । उसी के कहने पर महल में एक वासुदेव का पेड़ भी लगाया गया, जिसकी रानी रोज पूजा करती, अपने पुत्र सालवाहन के साथ । उसे जल देती । चूंकि बसावन एक ब्राह्मण था, इसलिए मालती अक्सर ही ब्राह्मण-भोजन के लिए रानी को कहा करती….
वनलताएं : हूं हूं हूं हूं….. हूं हूं हूं हूं……….
तीन-चार ब्राह्मण जीमते हुए बैठे हैं । एक तरफ रानी गोद में पुत्र को लिए हुए बैठी है । मालती परोस रही है । तभी अचानक मालती बदहवास हो जाती है (उस पर बरम आते हैं ।)
रानी : मालती ! क्या हुआ तुझे ? मालती !
मालती : अरे तू काहे डरती है ? मुझे जो करना था, मैं कर चुका । तुझे डरने की कौनो जरूरत नहीं !
भाई : क्या हुआ ….. क्या हुआ ? मालती !
मालती : किसी को डरने की जरूरत नहीं है ! काहे डर रही है तू ? मैंने कहा न, तुझे कुछ न होगा । मुझे जो करना था, मैं कर चुका ।
भाई : लगता है मालती पर देव सवार हैं ! बाबा, क्या आज्ञा है ! बताइए !
मालती : मैंने कहा न, तुझे कुछ नहीं होगा । मुझे जो करना था कर चुका !
रानी : तुमने महाराज को क्यों मारा ? बताओ ! क्या कसूर था उनका ?
मालती : उसने वासुदेव को कटवाया था जो मेरे बाबा थे । इतना ही नहीं, उनके भाइयों को भी कटवा दिया था ! पाप किया उसने ! घनघोर पाप !
भाई : बाबा, हम अपनी बहन और भांजे को बांधवगढ़ नहीं पठाएंगे । वहां इन दोनों के लिए खतरा है ।
मालती : किससे खतरा है ? मुझसे ? अरे मेरी बहन है ये ! ये मेरी बहन और ये मेरा भांजा है । समझे ! ये मेरी बहन और मेरा भांजा है ।
भाई : तो क्या तुम इनकी रक्षा करोगे ?
मालती : हां करूंगा । … इनको कुछ नहीं होगा ।
रानी : बाबा, हमें और क्या करना होगा ?
मालती : मेरी पूजा !
सभी अंदर की ओर जाते हैं । वनलताएं शब्दोच्चार करती हैं ।
वनलताएं : अश्वत्थ देता धन, सुन लो जो हमने कहा ।
अशोक मारे शोक, हो प्रसन्न सर्वदा ।
नीम देता प्राण, है मदार से सूर्यतुष्टि ।
ऊमर हरता रोग, पलाश दे ब्रह्म-दृष्टि ।
बेल स्वयं महादेव ….. आ आ आ ……..
वृक्ष-पालन हो कि जैसे सुत का हो पालन
वृक्ष फिर बनते पिता करते जगत-तारण
पुष्प करते हैं प्रसन्न देवताओं को
दान करने से फलों का, मोक्ष पितरों को
देव-दानव ही नहीं गंधर्व-किन्नर भी हैं पाते
मानवों की भांति पशु-पक्षी भी पाते हैं शरण…………
वनदेवियां मधुर संगीत में नृत्य करने लगती हैं । राजीव और मनो पास-पास आते हैं और चबूतरे पर बैठ जाते हैं । पुजारी अपने मूल स्वभाव में आता है ।
पुजारी : रानी अपने पुत्र को लेकर राज्य लौटी और रामपुर के करीब बांधा मौजा में रहने लगीं । तब से हर साल यहां बसावन मामा की पूजा होने लगी । चूंकि बसावन को नये राजा सालवाहन स्वयं मामा कहा करते थे, इसलिए तमाम बघेलखंड में वो बसावन मामा के नाम से मशहूर हुए । बोलो बसावन मामा की !
वनलताएं : जय !
पुजारी : लोग उन्हें खिचड़ी और जनेऊ चढ़ाया करते हैं !
राजीव और मनो एक-दूसरे को देखते हैं ।
राजीव : बाबा, खिचड़ी और जनेऊ तो हमारे पास नहीं है, लेकिन मैं कुछ द्रव्य दे सकता हूं ।
मनो : आप वो खरीदकर चढ़ा देंगे ?
पुजारी नहीं लेता ।
पुजारी : क्या तुम्हें वाकई लगता है कि उनकी पूजा यही है ? मात्र खिचड़ी और जनेऊ ?
वनलताएं : हूं हूं हूं हूं…… हूं हूं हूं हूं……..
पुजारी मुस्कुराता हुआ रहस्यात्मक ढंग से चला जाता है । राजीव-मनो शिथिल होकर लुढ़क जाते हैं । वनदेवियां क्रमशः शांत होती हैं ।
अंधेरा । सूर्योदय का सूचक प्रकाश होता है ।
राजीव और मनो बेतरतीब तरीके से सोए हुए हैं । राजीव का मोबाईल बजता है । उठता है ।
राजीव : हैलो ! ……………… हां ।………… अच्छा……….. यहीं पास में…… नदी किनारे एक आश्रम है… ओके…. (पूरे परिवेश को देखता है ।) मनो……… मनो ………. !
मनो : अं !
राजीव : देखो तो !
दोनों हैरान होते हैं । वहां न तो कोई पुजारी, न पूजा का कोई निशान । न ही रात की वह अलौकिकता…. हैरान होते हैं ।
मनो : राजीव ! हम लोग रात में क्या यहीं थे ? … पुजारी जी कहां हैं ?
राजीव : हां । यहीं थे । मगर….
मनो : मगर ?
राजीव : यहां पुजारी जी नहीं हैं ….. न की कोई दिया… न पूजा की कोई निशानी….
मनो : और ये पेड़ भी… जैसे सदियों से हिले ही न हों….. क्या वो सपना था ?
राजीव : जो भी था, अजीब था….
बाहर से पुकार आती है – ‘राजीव साहब !’ मैकेनिक आता है।
मैकेनिक : राजीव साहब आप हैं ?
राजीव : हां ।
मैकेनिक : सॉरी सर, आने में थोड़ी देर हो गई… मैकेनिक हूं । चलिए, रोड पर ही चलते हैं जहां कार है….
राजीव : ये लो चाभी । जब बन जाए तब कॉल करना ….
मैकेनिक चाभी लेकर जाता है । कुछ देर तक दोनों चुप रहते हैं ।
राजीव : ….. क्या हुआ मनो ! क्या सोचने लगी ?
मनो : कुछ समझ में नहीं आ रहा मेरे ….. चलो, वापस जबलपुर लौट चलें…..
राजीव : जबलपुर लौट तो चलूं… लेकिन…. फिर से आना पड़ेगा…..
मनो : नहीं…… राजीव, हम वो जमीन नहीं बेचेंगे ।
राजीव : क्या ? उसका इससे क्या मतलब ? (अचानक राजीव को अर्थ समझ आता है ।)
मनो : पड़ी रहने दो उसको…. भूल जाओ…. हम वो जमीन नहीं बेचेंगे ।
राजीव : तुम पागल हो गई हो ? … इस भूत-प्रेत की कहानी से डर गई ?
मनो : तो क्या तुम्हें वो कहानी याद है ? … यानी वह सपना नहीं था ?
राजीव : सपना ? हां, वो सपना नहीं था, शायद । तो क्या था वो ?
मनो : नहीं जानती । (रोने लगती है ।)
राजीव : मनो !
मनो : हम जबलपुर लौट चलेंगे । उसे पार्क ही रहने दो राजीव । होने दो जो नुकसान होता हो । कुछ मायने नहीं रखता….
राजीव : क्या सोचने लगी ?
मनो : कितना अच्छा लगता होगा वहां लोगों को । हरे हरे पेड़ ! शुद्ध ताजी हवा ! उनकी छाया लोगों को राहत देती होगी । बूढ़े वहां टहलते होंगे, बच्चे किलकारियां मारकर खेलते होंगे ! हमें उनकी खुशी छीनने का कोई हक नहीं है ।
राजीव के मोबाईल पर फोन आता है । राजीव अनमने भाव से फोन रिसीव करता है ।
राजीव : हां बोलो………………. क्या ? कार फ़र्स्ट इग्निशन में ही स्टार्ट हो गई ? ….ये कैसे हो सकता है ? कोई खराबी नहीं है ? ये कैसे पॉसिबल है ?….. ओके.. हम लोग आ रहे हैं ।
दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हैं ।
कार में कोई खराबी नहीं । स्टार्ट हो गई ।
राजीव ऊपर पेड़ों की तरफ देखता है ।आवाज देता है ।
राजीव : हे…….. ! ……….. हो ………….. ! ……………. कहीं कोई आवाज नहीं ? पुजारी जी ? … बाबा ! …………….. कहीं कोई निशान नहीं ! चटाई भी नहीं !
मनो : चलो……। चलो यहां से……… (भय के साथ सम्मोहन भी) कभी मौका मिला तो दोबारा आएंगे…..
राजीव : दोबारा ?
नो : हां ।
राजीव : लेकिन इस जगह का नाम क्या है ?
मनो : ……….. बसावन मामा….
राजीव : अच्छा नाम है !
दोनों चलते हैं । रुकते हैं, प्रणाम करते हैं, निगाह भरकर देखते हैं, चले जाते हैं । थोड़ी देर बाद, वनलताओं में रंगत आती है, धीरे-धीरे हलचल शुरू होती है । गुनगुनाने लगती हैं ।
वनलताएं : हूं हूं हूं हूं….. हूं हूं हूं हूं…………

प्रकाश क्रमशः समाप्त होता है ।

नोट : इस आलेख का आंशिक या पूर्ण उपयोग, मंचन या किसी भी रूप में करने से
पहले © योगेश त्रिपाठी से लिखित अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है अन्यथा
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About the author

योगेश त्रिपाठी

जन्म (18 जून सन् 1959) और शिक्षा, बघेलखंड के केंद्र रीवा (म.प्र.) में । साहित्य कला परिषद दिल्ली सरकार द्वारा तीन बार मोहन राकेश पुरस्कार प्राप्त - मुझे अमृता चाहिए (2002), केशवलीला रामरंगीला (2011) एवं चौथी सिगरेट (2018) । आकाशवाणी महानिदेशालय नईदिल्ली द्वारा दो रेडियो नाटक पुरस्कृत - शत्रुगंध (2002) और लकड़ी का पुल (2016) । रीवानरेश महाराज विश्वनाथसिंह रचित हिंदी के प्रथम नाटक आनंद रघुनंदन का संपादन व बघेली रूपांतरण । बाणभट्ट कृत कादंबरी का संपादन व हिंदी नाट्यांतरण । अब तक 60 से अधिक रेडियो नाटक और 44 छोटे-बड़े मंचीय नाटकों का लेखन/ नाट्य रूपांतरण । देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में लगभग 40 निर्देशकों के द्वारा दो सौ मंचन । रंगकर्म - होरी, बिन बाती के दीप, राग दरबारी, होइहैं वहि जो राम रचि राखा, प्रलय की दस्तक, कालचक्र, गबरघिचोर, देह तजों कि तजों कुलकानि, ताजमहल का टेंडर, अभिज्ञान शाकुंतल (कालिदास नाट्य-समारोह 2009), कोर्टमार्शल, छाहुर, रानी लक्ष्मीबाई, फूलमती आदि नाटकों का निर्देशन । होइहैं वहि जो राम रचि राखा, गबरघिचोर और छाहुर (मध्यप्रदेश नाट्य समारोह 2005) नाटकों में बघेली नाट्य-युक्तियों का सृजनात्मक प्रयोग । बघेलखंड के पारंपरिक नाट्य-रूपों के संकलन, अभिलेखन और आधुनिक रंगमंच पर इनके सृजनधर्मी प्रयोग से नई नाट्यभाषा और नाट्य-युक्तियों की खोज में संलग्न । पुस्तकें - 1. कागज पर लिखी मौत 2. हस्ताक्षर 3. दो रंग नाटक - मुझे अमृता चाहिए और युद्ध 4. ता में एक इतिहास है 5. रंग बघेली (बघेली नाट्यसंकलन) । 6. दो नाटक - शत्रुगंध और ऑक्सीजन 7. आदि शंकराचार्य 8. 1857 : एक अविजित विजय

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