प्रताप नारायण सिंह II
उस दिन आनंद की छुट्टी थी। लगभग दस बजे वह अपने एक दोस्त राजीव के घर चला गया। बोलकर गया कि एक-दो घंटे में वापस आ जाएगा। राजीव उसकी कक्षा में ही पढ़ता था। उसके घर भी आनंद और उसके माता-पिता का आना-जाना था और आंटी जी से भी जान-पहचान थी। उसका घर इनके घर से थोड़ी दूर था।
दोपहर हो गई लेकिन आनंद वापस नहीं आया। रुचि को एक अजीब सी बेचैनी सी होने लगी। वह बार-बार बाल्कनी तक जाकर देख आती। आन्टी जी ने कहा, “तुम क्यों इतना परेशान हो रही हो। वहीं रुक गया होगा। शाम तक आ जाएगा। राजीव की मम्मी ने उसे इतनी धूप में नहीं आने दिया होगा।”
“बोलकर तो गया था कि एक-दो घन्टे में आ जाएगा। कल उसकी परीक्षा भी है।“
“कल से ही वह तैयारी कर तो रहा है। सुबह भी उसने पढ़ाई की थी। और फिर राजीव के यहाँ उसकी मम्मी भी हैं। राजीव को भी परीक्षा देनी है। दोनों पढ़ रहे होंगे। तुम बेकार में परेशान हो रही हो, वह शाम तक आ जाएगा।”
बात सिर्फ़ पढा़ई की नहीं थी, यह रुचि को पता था। अगले दिन उसकी गणित की परीक्षा थी, जो कि उसका सबसे पसंदीदा विषय था और उसने पूरा तैयार कर लिया था, यह बात रुचि भी जानती थी। वास्तव में उसका इतने लम्बे समय तक न होना रुचि को खल रहा था।
शाम को जब वह लौटा तो रुचि उस पर एकदम से बिफर पड़ी, “तुम सारे दिन घूमते रहे…कह कर गये थे कि एक-दो घन्टे में लौट आउँगा…यह कोई तरीका है…कल पेपर है और तुम्हें पढ़ने-लिखने का कोई होश नहीं है।” यह उसके अपने मन की खीझ थी।
“कोई बात नहीं, अभी वह पढ़ लेगा…तुम उसे डाँटो मत।” आन्टी जी को रुचि का डाँटना अच्छा नहीं लगा। फिर आनन्द से उन्होंने पूछा, “भूख लगी है? कुछ खाओगे?” आनन्द ने नहीं में सिर हिला दिया।
“क्यों, दोपहर को ही तो खाए होगे न…अच्छा बिस्किट खा लो और दूध पी लो।” फिर उन्होनें रुचि को कहा कि वह आनंद को दूध और बिस्किट दे दे।
रुचि के डाँटने के कारण आनंद का चेहरा उतर गया था। वह स्टडी-रूम में चला गया और किताब खोलकर बैठ गया। रुचि दूध लेकर आई। उसने चुपचाप दूध पी लिया। वह उससे बात करने की कोशिश कर रही थी. किन्तु कुछ भी पूछने पर या तो वह चुप रहता या हाँ-ना मे सिर हिला देता।
रुचि को पछतावा होने लगा कि बेकार में ही उसने डाँट दिया था। वह उसे मनाने लगी। सॉरी कहा। उसे लाकर चाकलेट दी। उसके पेट में गुदगुदी की। थोड़ी देर मे वह मान गया और सामान्य हो गया।
(3)
देखते-देखते एक सप्ताह बीत गया। अब आनंद के एक विषय की परीक्षा और बाकी है। कल उसकी परीक्षा खत्म हो जायेगी। दो-तीन दिन बाद उसके पिता जी उसे गाँव लिवा ले जाएँगे।
इतने दिनो में आनंद कभी भी अपने घर वालों को याद करके उदास नहीं हुआ था। लेकिन आज जब रुचि ने पूछा कि “मम्मी की याद आ रही है?” तो अनायस ही उसकी आँखें भर आई थीं।
रात में सोते समय रुचि सोचने लगी कि तीन दिन बाद आनंद चला जायेगा। सब कुछ खाली-खाली सा हो जाएगा। बहुत देर तक उसे नींद नहीं आई।
अगले दिन जब आनंद स्कूल से लौटा तो रुचि अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी थी। उसके सिर में दर्द हो रहा था। डाक्टर साहब की डिस्पेंसरी थोड़ी दूर थी। बाहर बहुत धूप थी। इतनी धूप में रिक्शे से रूचि को डिस्पेंसरी ले जाना आंटी जी को ठीक नहीं लगा। इसलिए उन्होंने घर पर पड़ी सिर दर्द की गोली दे दी। सोचा कि डाक्टर साहब दोपहर में खाना खाने के लिए दो बजे घर आएँगे ही, तब देख लेंगे। अभी कुछ आराम था।
आनंद आज लौटते समय बहुत खुश था। आज अन्तिम परीक्षा थी। रुचि ने उससे कहा था, “जब तुम्हारी परीक्षा खत्म हो जाएगी तब हम खूब मस्ती करेंगे।“ उसे सिनेमा दिखाने का वादा भी किया था। और सबसे बड़ी बात यह कि अब उसे पढ़ने लिए कोई नहीं कहेगा। खेलने से कोई नहीं मना करेगा ।
जब घर पहुँचा तो आन्टी जी ने दरवाजा खोला। उसे थोड़ा असामान्य लगा। रोज जब वह लौटता तो रुचि उसे बाल्कनी में खड़ी मिलती। जब ऊपर आता तो वही दरवाजा खोलती। फिर उसके कपड़े बदलवाती, उसकी परीक्षा के बारे में पूछती, उसे खाना खिलाती। लेकिन आज वह बाल्कनी पर नहीं थी। दरवाजा भी आंटी जी ने खोला।
आन्टी जी उसके साथ ही कमरे में आ गईं.। उन्होने आनन्द से कहा, ” बेटा, कपड़े बदलकर चलो खाना खा लो।” फिर उन्होने रुचि से पूछा, “कैसा लग रहा है अभी ?” रुचि ने कहा कि अभी ठीक है।
“क्या हो गया?” आनंद ने पूछा।
“सिर में दर्द हो रहा है।” आन्टी जी ने जवाब दिया। फिर बोलीं, “मैं खाना लगाती हूँ, तुम दोनों आ जाओ।” वह चली गईं।
आनंद रुचि के पास आ गया और बोला, “बहुत तेज दर्द हो रहा है?”
“नहीं, अब तो ठीक लग रहा है…” रुचि ने उठकर बैठते हुए कहा, “तुम्हारा पर्चा कैसा हुआ?”
“अच्छा हुआ…आप डिस्पेंसरी गई थीं?..दवाई लीं?” उसने पूछा.
“डिस्पेंसरी कैसे जाती, बाहर इतनी धूप है। और अधिक सिर-दर्द होने लगता….घर पर ही दवा ले ली थी।” फिर मुस्कराते हुए आगे बोली, ” अगर तुम बड़े होते तो मुझे बाइक पर बिठाकर डिस्पेंसरी ले जाते न?”
“हाँ…” आनन्द ने आँखें बड़ी-बड़ी करते हुए कहा, ” मैं अभी भी आपको ले जा सकता था अगर मेरी साइकिल होती तो।”
“तो तुम मुझे साईकिल पर बिठाकर ले जाते…सो स्वीट…” वह हँसने लगी।
“अच्छा चलो, अब खाना खाते हैं।”
अगले तीन दिनो में रुचि और आनंद ने खूब मस्ती की। रुचि उसे सिनेमा भी ले गई। बाजार में जादू का खेल लगा था। एक दिन उसे वह दिखाने ले गई। उसके लिए कई कामिक्स खरीदा। दोपहर भर लूडो और कैरम खेलते, टेलीविजन देखते। उसने रुचि को लट्टू नचाना सिखाया। रोज शाम को दोनों चाट खाने जाते।
तीन दिन पलक झपकते ही निकल गए। आनंद के पापा आज उसे ले जाने के लिए आ गए। डिनर करते समय आंटी जी ने कहा -“भाईसाहब आज आनंद को यहीं रहने दीजिये, घर पर भाभी जी तो हैं नहीं। सुबह यहीं से लिवाकर गाँव चले जाइयेगा।“ आंटी जी की बात उन्हें ठीक लगी। वे अकेले ही घर चले गए।
रात के ग्यारह बज रहे होंगे। रूचि की आँखों में नीद नहीं थी।
“कल वह चला जाएगा…” रूचि बिस्तर पर लेटे हुए सोच रही थी। एक व्यग्रता उसके मन को घेरे हुए थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कुछ छूट रहा हो।
वह अपने बिस्तर से उठी और लाईट जलाया। देखा आनंद गहरी नींद में सो रहा था। वह उसके बिस्तर के पास गई। कुछ देर तक खड़ी होकर उसके मासूम चेहरे को एकटक निहारती रही, फिर झुक कर उसके माथे को चूमा और उसके सिरहाने बैठ गई। अपनी उँगलियों को उसके माथे, बालों और चेहरे पर फिराने लगी, जैसे कि वह उन्हें अपने अन्दर समेट लेना चाहती हो। फिर उसके हाथ को अपने हाथों में लेकर उँगलियों पर न जाने क्या गिनने लगी। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। कितनी देर तक यूँ ही बैठी रोती रही। कब नींद आ गई पता नहीं चला। बैठे-बैठे ही दीवार से पीठ टिकाकर सो गई।
जब आँख खुली तो करीब चार बज चुके थे। आनंद का हाथ उसकी गोद में था। वह उसके पैरों से लिपटकर सो रहा था। रूचि ने उसका हाथ हटाकर उसे दूसरी करवट सुलाया और अपने बिस्तर पर आकर लेट गई।
सुबह जाते समय रुचि ने उसे ढेर सारी चाकलेट दी। उसके माथे को चूमा और पूछा, “मुझे याद करोगे?” कहते हुए उसकी आँखें डबडबा गईं और गला रूँध गया। आनंद को समझ में नहीं आया कि क्या कहे। ऐसा प्रश्न उसके सामने पहली बार आया था। उसने हाँ में सिर हिला दिया।
आनंद की लगभग डेढ़ महीने की गर्मी की छुट्टियाँ थीं। गाँव जाकर वह अपने दोस्तों के साथ खेल-कूद और मौज-मस्ती में लीन हो गया। उसे शायद ही कभी रुचि की याद आई होगी।
छुट्टियाँ बिताकर जब वह लौटा तो एक दिन अपनी माँ के साथ आन्टी जी के घर गया। तब तक रुचि जा चुकी थी। जब आनंद की परीक्षा के समय की बातें होने लगी तो आन्टी जी ने हँसते हुए कहा, “आनंद! जब तुम चले गए तो रुचि एकदम पागल हो गई थी। वह शाम को बाल्कनी में खड़ी होकर तुम्हें आवाज लगाती थी कि आनंद आओ दूध पी लो।”
बारह साल के आनंद के लिए यह समझना कठिन था कि वह ऐसा क्यों करती थी।
“समाप्त”