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स्त्री अस्तित्व की कविता का विराट फलक : स्त्री का पुरुषार्थ

मीना बुद्धिराजा II

समकालीन स्त्री कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें क्रूर- हिंसक यथार्थ में मानवीय संवेदना और सृष्टि में प्रेम और करुणा को बचाए रखने की शक्ति है । दूसरी ओर स्त्रीवाद की कठोर ज़मीन पर खड़े होकर अपनी विडंम्बनाओं , त्रासद सच्चाईयों और पितृसत्तात्मक शोषण की चली आ रही चुनौतियों के प्रति भी उसकी दृष्टि अब सजग और सतर्क है ।स्त्री कविता का संघर्ष जिस स्त्री की निर्मिती कर रहा है वह देह केंद्रित विमर्शों से आगे बढकर उसे वस्तु से मनुष्य बनाने की प्रक्रिया का जरूरी पड़ाव है । यह शोषण का प्रतिरोध करके अपना स्पेस और अधिकार प्राप्त करने का प्रयास तो है साथ ही लैंगिक भेदभाव से परे एक ज़ेंडर संवेदनशील समाज को बनाने में विश्वास रख अपने अनुभवों और विवेक के सांमजस्य से स्त्री के प्रति रूढिवादी सोच को बदलने और कविता में नया दृष्टिकोण विकसित करने की अभूतपूर्व कोशिश है ।

समकालीन स्त्री कविता के परिदृश्य में सक्रिय युवा पीढी की प्रखर और सशक्त रचनाकारों में कवयित्री डॉ सांत्वना श्रीकांत एक सार्थक हस्तक्षेप के रूप में उपस्थित हैं । इतिहास और वर्तमान की संरचना में स्त्री संघर्ष को जिस तार्किक और आधुनिक संदर्भों में वे पारिभाषित कर रही हैं,यह एक युवा स्त्री कवि के स्तर पर उनकी मौलिक उपलब्धि है । उनका नया कविता संग्रह ‘स्त्री का पुरुषार्थ’इस संदर्भ में युवा स्त्री कविता के क्षेत्र में रचनात्मकता की नयी संभावनाओं की सार्थकता को प्रमाणित करता है ।इन कविताओं में स्त्री के बहुआयामी यथार्थ के तमाम अमानवीय और संवेदनहीन कारणों पर उनकी दृष्टि है और उन पर गहन चिंतन भी इस संग्रह की कविताओं का कें्र्बिबंदु है । इनमें समसामयिक विमर्श के आलोक में जिस सघनता से स्त्री मुक्ति के लिये तीव्र आकांक्षा का स्वर है वह पौरुषपपूर्ण व्यवस्था में परंपरा से स्थापित छवि के विपरीत स्त्री पाठक की चेतना में गूंजते हुए उसे अपनी अस्मिता की पहचान और उसके सार्थक बदलाव की दिशा में आंदोलित करता है-

शिखर पर मिलूंगी मैं तुम्हें
विमुख तुम्हारे मोह से
प्रतिध्वनियों से तिरस्कृत नहीं
तुमको अविलंब
समग्र समर्पण के लिए ।
मुक्त, बंधन इन शब्दों से परे
बुद्ध की मोक्ष प्राप्ति और
यशोधरा की विरह वेदना के
शीर्ष पर स्थापित होगा शिखर ।

देह, अहम, चरित्र को समर्पित करती स्त्री की गरिमा जो सदियों से पुरुष को कभी स्वीकार्य नहीं हुई, अंतत: आज स्त्री इस बंधन को त्याग कर मुक्त होना चाह्ती है और उस शिखर पर पुरुष को मिलने का उद्देश्य है जब वह अपने तीनों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम को जीने के बाद अंतिम चरण मोक्ष के आरंभ में स्त्री के समान अस्तित्व को स्वीकार कर सकेगा ।
ज्ञान और बुद्धि पर पुरुष वर्चस्व की सभी पितृसत्तात्मक सीमाओं को तोड़कर और शोषण के सभीखोखले बंधन के दुष्चक्रों से मुक्त करते हुए इन कविताओं में अपराजित स्त्री की गरिमा का अटूट संघर्ष है और उसके लिये तय की गई सामाजिक बेडियों और विषमताओं की गहरी पडताल है।इसके लिये कवयित्री के यहाँ परपंरागत शब्दों की अर्थसीमाओं को पहचानकर एक नयी सशक्त, विचारसंपन्न और जीवंत स्त्री भाषा भी है जिसमें शब्दो का बाँध खुलते ही भावों और विचारों की नदी मुक्त प्रवाहित होने लगती है-

स्वीकृतियों से नहीं रचना
मुझे अपना भविष्य
मैं अस्वीकृति को ही
ढाल दूंगीं रण में
असंभव के मातम को परिवर्तित करूंगी
विजय गाथा में
चल रही मैं शूलपथ पर
अपने ही लहू को विजयपथ बना !

स्त्री के पुरुषार्थ अर्थात उसके सामर्थ्य और प्रत्येक चुनौती से जूझने की असीम योग्यता को व्यंजित करतीं ये कविताएँ स्त्री के जीवन संघर्ष का एक वक्तव्य है, उसके साहस और अदम्य जीवनी-शक्ति का बयान हैंतथाउसके स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकारोक्ति है। एक ओर इन कविताओं में माँ व पिता के प्रति पुत्री के रूप में उन स्मृतियों और मन:स्थिति में कवयित्री अपनी अनूभुतियों को साकार कर देती है तो ‘युद्धरत औरतें’ और ‘संकीर्णता तोडती औरतें’सुनो लड़की, उतर रहे हैं मुखौटेजैसी कविताओं में विद्रोह की नयी इबारत भी लिखती हैं –


पिता की देहरी लांघ
चुनौतियाँ देती हैं यही औरतें
कभी तीक्ष्ण, कभी मध्यम
सहती हैं कई प्रहार
फिर भी दृढ़प्रतिज्ञ
रहती हैं ये औरतें
कभी तिरस्कृत होतीं
तो कभी देतीं अग्निपरीक्षा
मगर सुनो समाज-
संकीर्णता को तोड़ती हैं
असीम संभावनाओं से भरी
हम सभी औरतें ।
जितनाकरोगे दमन उसका
बन कर देवी स्वरूपा,
खड़ी होगीं तुम्हारे सामने
कई रूपों में
हर बार ये औरतें ।

‘स्त्री का पुरुषार्थ’ की सभी कविताएँ स्त्री के लिये एक नई दुनिया रचने का साहस करती हैं । अस्तित्व और प्रेम की खोज के साथ इन कविताओं में अपने समय के प्रति, स्त्री की नियति, यथार्थ के लिए और अधिक मानवीय स्त्री- पुरुष संबंधों के प्रति एक ईमानदार दृष्टि और प्रतिबद्धता की जीवंत प्रस्तुति है । भूमिका में स्वयं कवयित्री ने अपनी रचना प्रक्रिया में स्वीकार किया है कि अपने जीवन के कटु सत्यों को जीती हुइ ्त्रिरयाँ ही इन कविताओं की आधारभूमि हैं । यह उस स्त्री की जीवन यात्रा है जो हमेशा अपने अस्तित्व कीस्थापना के लिये संघर्ष करती रही है । यह संघर्ष सामाजिक, पारिवारिक और व्यैक्तिक स्तर पर भी,बल्किप्रेम के द्वंद्व में भी जीवन की इस अनवरत यात्रा में चलता रहता है ।
स्त्रीकाल-1 से स्त्रीकाल 4 तक इन खंडों में विभक्त इस संग्रह की कविताओं में वस्तुत: विभिन्न परिस्थितियों में स्त्री के अनुभवों की इस अनंत यात्रा का वर्णन है जो देह के स्तर पर ही नहीं,बौद्धिक रूप से भी अधिक परिपक्व और सजग है । अस्तित्व की सार्थकता की लक्ष्य प्राप्ति के इस दुर्गम संघर्ष में स्त्री मुक्ति का समकालीन विमर्श भी उपस्थित है और स्त्री कविता की रचना की प्रक्रिया भी इस क्रम में साकार हो उठती है । एक संवेदनशील और प्रखर कवयित्री के रूप में सांत्वना का काव्य फलक देश का संपूर्ण भूगोल है , जहाँ स्त्री सृजनात्मकता में, अपनी कविता की संरचना में सभी भेदभावों से परे और लिंग, वर्ण, जाति-वर्ग की अवधारणाओं से मुक्त होकर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखती हैं।

मेरी भाषा अलग है
तुम्हारी भाषा अलग है
लद्दाख की मूक बर्फ से
ढकी पहाड़ियों को चीरती
आदिवासियों की पीर को
दोनों ने ही महसूस किया है,
असम में नागरिकता
न मिलने का दुख
दोनों भाषाओं में
एक जैसा ही होता है।
कच्छ के सुर्ख सफेद रेगिस्तान की पीड़ा
मुझसे होकर तुम तक
भी तो जाती है,
अबकी बार जो मिलोगे
तुम अरब सागर का
सारा नीलापन मेरे माथे पर मलना
और मैं सोख लूंगी
तुम्हारी उदासियों का खारापन ।

अबकी बार जो मिलोगे, ‘तुम्हारी खोज में’मेरा अनंत होना, बुद्ध की प्रतीक्षा, मेरी शून्यता का अनंत, मैं लिख रही हूँ, समर्पित करती हूँ, और मैंने गढ़ा प्रेम जैसी अनेक सशक्त कविताएँ एक समकालीन स्त्री विमर्श के लिए बाध्य करती हैं, जिसमें स्त्री मन की विराट आकांक्षाओं का विस्तार है। यह स्व- अस्तित्व के बोध और खोज की यात्रा में स्त्री की मानवीय चेतना की प्रतिष्ठा और गरिमा का, एक विचारशील कवयित्री केसमृद्धशिल्प का उत्कर्ष है-

शताब्दियों से मैंने पढ़ी है
हड़्प्पा से लेकर मेसोपटामिया
तक की लिपियां,
मिट्टी के ठीकरों पर उत्खनित
अवशेषों को भी बहुत ध्यान से देखा है,
पशुपति और मदर गॉडेस
के सामने सिर झुका कर
घुटने के बल बैठी हूँ
सिंधु और दजला फरात में
जी भर कर डुबकी लगा कर
उपासना की है
यह समस्त प्रक्रिया मैंने
तुम्हारी खोज में की है ।

सभ्यताओं के विकास में प्रेम का मह्त्व पहचानकर कवयित्री इसे सृष्टि के लिए बचाना चाह्ती है जो अस्तित्व के विराट संदर्भ का चरम शिखर है । इसलिये यह प्रेम पवित्र, अनंत, अनश्वर होकर ही स्थायी रह सकता है, अपने बंधनों से मुक्त कर सकता है जब स्त्री इस यात्रा में अनूभुति के निर्णय तक पहुंचती है-

मेरा अनंत होना उतना ही जरूरी है
जितना कि ब्रम्हांड के अंत होते समय
बचा रहे सत्य
प्रेम के होने का ।

कविता स्त्रीकाल की इस दीर्घ यात्रा में स्त्री की आत्मक्रांति वह कें्र्बिबंदु है जिसमें इतिहास और समाज में विरह, पीड़ा, दु:ख, आँसू, प्रतीक्षा और शोषण को सहने से थकी-निराश स्त्री स्वंय आत्म बुद्ध्त्व के पथ पर अग्रसर होकर अपनी मुक्ति की तलाश में आगे बढ चुकी है । स्त्री की संगिनी कविता स्वचेतना के रूप में उसकी अस्मिता का साक्ष्य हैं जो उसके जीवन का आधार, उसके अनथक संघर्ष का वह स्वप्न है जो उसके दु:खो को सोखकर स्पंदित रखती है। अप्राप्य का यह सुख जो अनिश्चितताओं में ही निश्चित और शाश्वत रह सकता है, स्त्री इस सत्य को पहचानती है-

मैंने प्रेम होने का इतिहास-
दर्ज़ कर दिया है
तुम्हारे स्वंय में होने के
मायने कर दिये हैं लिपिबद्ध
अंकित कर दिया है
अपने वर्तमान और भविष्य में तुम्हें…
ताकि सदियों तक
जीवितरहे –
अप्राप्य का सुख ।

‘स्त्रीकाल’ के सभी चार खंडो की कविताओं के आवरणचित्र सार्थक, सुंदर, कलात्मक सुरुचि से पूर्ण और सभी शीर्षकों में चित्रित स्त्री की अलग-अलग भूमिकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।वास्तव में यह स्त्री के स्वर में सामूहिक और समकालीन वृहत्तर विमर्श है जो स्त्री अस्मिता के आत्मसम्मान का पक्षधर बनकर अपने समय से संवाद करता है । स्त्री मुक्ति के आदोंलन की दिशा में स्त्री की सोच को अधिक उदार और मानवीय बनाने के संघर्ष में ये कविताएँ अपनी भूमिका निश्चित रूप से निभाती हैं। ‘स्त्री का पुरुषार्थ’एक सशक्त काव्यकृति के रूप मेंअपने कथ्य, भावभूमि और अभिव्यक्ति शिल्प में स्त्री की अस्मिता को संकीर्णताओं से मुक्त करने की नयी संभावनाओं की खोज करती है।साथ ही उसके समकालीन यथार्थ और भविष्य के लिये नये अध्यायों को भी खोजती हैं जो मनुष्य जाति के सामाजिक, सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक विकास के लिये भी जरूरी हैं ।इन कविताओं की अनूभुति में विचार की रोशनी है और विचार में अनुभव का ताप है जहाँ संवेदना और ज्ञान एकाकार हो गए हैं । स्त्री के स्वत्व, समाज और व्यवस्था में उसकी मानवीय और स्वतंत्र पहचान को अंकित करती ये कविताएँ विलक्षण हैं जिनमें स्त्री मुक्ति की इस प्रक्रिया में रचनाकार की गहरी और विशाल दृष्टि समाहित है।

प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट ,उत्तम नगर ,नई दिल्ली

About the author

मीना बुद्धिराजा

मीना बुद्धिराजा

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
युवा आलोचक व निरंतर समकालीन आलोचनात्मक लेखन
संपर्क- 9873806557

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