मनस्वी अपर्णा II
लीजिए दिवाली भी आ गई। पूरे भारत में और विदेशों में भी जहां भारतीय बसे हुए हैं, वहां बहुत धूमधाम से यह मनाई जाती है। जब कोई बड़ा त्योहार आता है, मैं इसके औचित्य पर विचार करने लगती हूं। जाहिर तौर पर हर उत्सव या त्योहार के पीछे एक या अनेक धार्मिक और सामाजिक कारण होते हैं जिनके बारे में हमें बचपन से बताया जाता रहा है, लेकिन फिर मैं समझती हूं कि मनुष्य ने जब से सभ्य होना सीखा है, उसको समूह में रहना और समूह के साथ आमोद-प्रमोद करना भाया है। पहले जबकि जीवन बहुत ही दुष्कर था, ऐसे में अपने आप को खुश रखने और फिर से ऊर्जावान महसूस करने के लिए आपस में मिलना जुलना और मनोरंजन करना मनुष्य ने चुना। क्योंकि यही एक तरीका है जिससे हम मनुष्य खुश और बेहतर महसूस करते हैं और अपने आप को आने वाली चुनौतियों के लिए फिर से तैयार कर पाते हैं। यही आयोजन बाद में त्योहार बन गए।
जहां तक समझ आता है त्योहार आपस में खुशी बांटने के अवसर होते हैं, लेकिन कालांतर में ये त्योहार खुशी का अवसर न होकर एक अनजाना सा बोझ बनते जा रहे हैं, आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति त्योहार के आने से परेशान होता दिखाई पड़ता है। जेब पर पड़ने वाला अतिरिक्त बोझ और परिवार की अपेक्षाएं जैसे उसे दोधारी तलवार की तरह से काटती रहती है, वह चाहता है कि उसके अपने खुश हों और जेब खुशियां खरीदने की इजाजत नहीं देती… गरीब आदमी का हाल और बुरा है। उसे ये त्योहार किसी आपदा से कम नहीं लगते, उसकी मनोदशा भी यही होती है वो भी सबकी तरह खुश होना चाहता है, लेकिन खुशियां उसकी पहुंच से बहुत दूर होती हैं। ऐसे में एक अजीब सी उदासीनता वह धारण कर लेता है।
पहले ऐसा नहीं हुआ करता था। क्योंकि त्योंहारों पर बाज़ारवाद हावी नहीं था,साधारण सी वस्तुओं और साधारण से रीत रिवाज के साथ त्योहार मिल-जुल कर मनाए जाते थे। दीपावली को ही लीजिए इसमें सबसे अहम क्या है? मिट्टी के दीए, खील-बताशे और घर की बनी मिठाइयां…। और आज देखिए क्या तस्वीर है… विज्ञापन हमें बताते हैं कि हमको त्योहार में क्या-क्या करना है, कैसे कपड़े पहनना है, कौन सा रंग रोगन करवाना है। क्या ज़ेवर खरीदने हैं क्या तोहफे देने है… ये अंतहीन सूची है।
विज्ञापन निर्माता बहुत चतुर होते हैं। वे जानते हैं कि हमारा दिमाग चित्रों से ही चीजों को याद रखता है। इसलिए वे हमारे सामने एक खुशहाल त्योहार की ऐसी तस्वीर गढ़ते हैं जो उनके सामान को प्रयोग करती हुई सार्थक लगती है और हमारा मस्तिष्क अनजाने ही ये मानने लगता है कि उस दिखाई हुई तस्वीर के मुताबिक हमने सब कुछ नहीं किया तो मतलब हमने कुछ नहीं किया। अख़बार गहनों के, वाहनों के और घरेलू उपकरणों के विज्ञापनों से पटे रहते हैं, जैसे ये सब नहीं खरीदा तो त्योहार होगा ही नहीं…।

- एक समय में दीपावली पर मिठाइयां घर में ही बनाई जाती थी और रिश्तेदारों तथा परिचितों को वही परोसी जाती थी। अमूमन हर घर में वही सब पकवान बनते थे। फिर भी एक दूसरे के यहां से आए पकवान चाव से खाए जाते थे, तब न तो ड्राई फ्रूट्स और चॉकलेट वाले महंगे गिफ्ट पैक हुआ करते थे न ही बाज़ार की मिठाइयों का चलन था। नए कपड़े सिल जाएं उतना ही बहुत। तब लोग खुश हुआ करते थे। संतुष्ट दिखते थे। अनावश्यक होड़ और दबाव नहीं था। खुशियों पर बाज़ार हावी नहीं था। प्रतिस्पर्धा सिर्फ रंगोली और पटाखों में हुआ करती थी। त्योहार के यही सार्थक मायने थे।
एक समय में दीपावली पर मिठाइयां घर में ही बनाई जाती थी और रिश्तेदारों तथा परिचितों को वही परोसी जाती थी। अमूमन हर घर में वही सब पकवान बनते थे। एक दूसरे के यहां से आए पकवान चाव से खाए जाते थे, तब न तो ड्राई फ्रूट्स और चॉकलेट वाले महंगे गिफ्ट पैक हुआ करते थे न ही बाज़ार की मिठाइयों का चलन था। नए कपड़े सिल जाएं उतना ही बहुत। उनका ‘एथनिक वियर’ होना कतई ज़रूरी नहीं था। घर की सफाई और रंगाई-पुताई खुद ही की जाती थी। एक दूसरे के घर से चूना पोतने की कूचियां मांग कर काम किया जाता था, लेकिन लोग खुश हुआ करते थे। संतुष्ट दिखते थे। अनावश्यक होड़ और दबाव नहीं था। खुशियों पर बाज़ार हावी नहीं था। प्रतिस्पर्धा सिर्फ रंगोली और पटाखों में हुआ करती थी। त्योहार के यही सार्थक मायने थे।
हमको कुछ मामलों में अपनी जड़ों की ओर लौटने की बहुत जरूरत है, बाज़ार के मायाजाल से संभलने की ज़रूरत है। खुद को बाज़ार के सामने घुटने टेकने से बचाने की ज़रूरत है, अपनी परंपराओं को ठीक से समझने और उनको एक नया जीवन देने की ज़रूरत है। तभी हम त्योहारों के असली मकसद को पूरा कर पाएंगे।
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