कविता सामाजिक सशक्तिकरण

कामनाओं का करता हूं विसर्जन

संजय स्वतंत्र II

मैं अब कर देना चाहता हूं
सभी कामनाओं का विसर्जन,
तट पर निस्पृह भाव में देख,
नदी ने मुझसे पूछा-
अगर तुम विसर्जित कर दोगे
अपनी सभी इच्छाएं
तो कैसे रहोगे जीवित?

अगर मेरी लहरों में
बहा दोगे अपनी समस्त कामनाएं
तो कहां से संचित करोगे
अपने लिए असीम ऊर्जा।
कल्पनाओं की पोटली भी
बहा दोगे तो कैसे रचोगे
खुद को या दूसरों को भी।

नदी को मैंने दिया जवाब-
मुक्त होना चाहता हूं मां,
बहना चाहता हूं अब
ठीक तुम्हारी तरह,
सभी के मन की
कटुता और मलिनता को
डुबो देना चाहता हूं समुद्र में,
उन्हें निर्मल कर देना चाहता हूं
ताकि हर मनुष्य की
हृदयभूमि में लहलहा उठे
प्रेम-सद्भाव की हरियाली।

मां, मैं चलते रहना चाहता हूं
कामनाओं से मुक्त होकर
तभी रच पाऊंगा खुद को फिर से।
अपनी सारी स्मृतियों का
बनाऊंगा एक स्मारक
और वहीं अर्पित करूंगा
अक्षरों की पुष्पाजंलि।

तुम्हारी लहरों पर जब
उम्मीदों की नारंगी रश्मियां
झिलमिलाएंगी इस पार से उस पार,
उसी से भस्म करूंगा
जन-जन की नाउम्मीदियों को,
तैयार करूंगा सभी के मन का रथ
सक्रिय करूंगा उनकी
दमित इच्छाओं के घोड़े,
फिर से खिलाऊंगा मैं
कामनाओं का नीलकमल
शून्यता में डूब रहे मनुष्यों के लिए।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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