मनस्वी अपर्णा II
स्त्री का मन समझना हो तो हरसिंगार को देखना चाहिए। इतना ही नाजुक, इतना ही कोमल और क्षणभंगुर, लेकिन सुंदर भी… स्त्री का मन अहंकार के जरा से ताप में मुरझा जाता हैं, जैसे हरसिंगार के फूल जरा सी धूप में मुरझा जाते हैं। बहुत कोमलता से थामना होता है इन दोनों को… थोड़ी भी कठोरता में ये अपना वास्तविक रूप हमेशा के लिए खो देते हैं। सहेजे नहीं जा सकते। इनकी सुगंध, ताजगी और सौंदर्य को अनुभव करना हो तो बस तब ही किया जा सकता है जब ये खिले हुए होते हैं अपनी पूरी गरिमा और सौंदर्य के साथ एक मोहक सुकोमलता लिए हुए। जिसने एक बार इस स्वरूप का रस चख लिया वो इस कीमिया को सदा के लिए जान जाता है कि क्षणभंगुरता में शाश्वत का वास्तविक रूप छिपा होता है।
कोई स्त्री अपना मन बहुत मुश्किल से खोलती है और बहुत ही एहतियात से… ठीक वैसे ही जैसे हरसिंगार के फूल खिलते हैं, भोर के धुंधलके में। कई बार ऐसे ही अहसास के धुंधलके में, किसी गफलत में किसी ऐसी जगह मन खोल देती है जहां मन कुचला जाता है कभी सायास कभी अनायास…जैसे हरसिंगार के फूल जमीन पर, सड़क पर आ गिरते हैं। बिखरे हुए फूल कुचले जाते हैं अनायास ही क्यों न, मगर कुचले जाते हैं। दुर्दशा का शिकार होते हैं। ऐसे ही स्त्री का मन कुचला जाता है और जब कभी यूं कुचल जाता है, फिर कभी वो खिल नहीं पाता। न ही खुल पाता है। और यदि यह कड़वा अनुभव गलती से दुबारा हो जाए तो फिर वो कोमल सा हिस्सा सदा के लिए बंजर और कठोर हो जाता है जो दुबारा कभी अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं लौटता। और फिर न जाने कितनी अफवाहें स्त्री के मन के साथ जुड़ जाती है।

- कोई स्त्री अपना मन बहुत मुश्किल से खोलती है और बहुत ही एहतियात से… ठीक वैसे ही जैसे हरसिंगार के फूल खिलते हैं, भोर के धुंधलके में। कई बार ऐसे ही अहसास के धुंधलके में, किसी गफलत में किसी ऐसी जगह मन खोल देती है जहां मन कुचला जाता है कभी सायास कभी अनायास…जैसे हरसिंगार के फूल जमीन पर, सड़क पर आ गिरते हैं। बिखरे हुए फूल कुचले जाते हैं अनायास ही क्यों न, मगर कुचले जाते हैं। दुर्दशा का शिकार होते हैं। ऐसे ही स्त्री का मन कुचला जाता है।
शायद ही कोई ऐसा हो जो अपना मन किसी के सामने खाली न करना चाहता हो। हर किसी को कोई एक व्यक्ति चाहिए होता है जिससे वह अपना अंतस साझा कर सके। इस मामले में स्त्री मनोवैज्ञानिक और नैसर्गिक रूप से ज्यादा उत्सुक और आकांक्षी होती हैं। बड़ी से बड़ी मुश्किल हो उसका हल और उससे राहत स्त्री को बात करके ही मिलती है। किसी से कह भर लेने से उनका दुख आधा हो जाता है। उनको समाधान नहीं बस सहानुभूतिपूर्वक कोई सुनने वाला चाहिए होता है, लेकिन अक्सर ही ये आकांक्षा उनके लिए एक नए दुख का आगाज बन कर उभरती है।
अपनी कोमल भावनाओं का अनादर और उसका दुरुपयोग किसी के भी लिए असहनीय होता हैं। स्त्री तो फिर भी मन से बहुत सुकोमल होती हैं। उनके मन में समर्पण की स्निग्धता होती है। और यही वो कमी है जो उनको अक्सर छल का शिकार बनाती है जो मर्मज्ञ होते हैं बेहतर जानते हैं किसी स्त्री के किस पहलू को छूना है, किसे नहीं। उसके मन को किस आघात से बचाए रखना है। मन का वो कौन सा कोना है जो स्त्री ने सबसे छुपा कर रखा है। उसको कैसे और कब छूना है, ये जरा सी सावधानी किसी भी स्त्री के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित होती हैं। उसके स्वत्व के लिए, उसके मन के लिए।
लेकिन अक्सर इसके विपरीत होता है किसी भी स्त्री को उसके मन के उस अनछुए कोने के नाम पर ही छला जाता है। यूं भी नहीं कि जान कर कभी-कभी अनायास ही पुरुष को शायद इस बात का अहसास तक नहीं होता कि उसने क्या गड़बड़ की है लेकिन उसका ये व्यवहार सदा के लिए स्त्री को उसके प्रति अविश्वासी बना देता है और ये घटना किसी भी सूरत में स्त्री पुरुष के उस शाश्वत संबध के लिए अच्छी नहीं होती।
ये समय है बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ कर एक नया समीकरण बनाने की जिसमें किसी भी प्रकार के आग्रह से बढ़ कर आपसी सामंजस्य और समझ को बढ़ाने के नुस्खे ईजाद किए जाएं ताकि अरसे से उपेक्षा, अवहेलना और अनादर सह रही आधी आबादी को अपने हिस्से का सुकून मिल सके।
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