संध्या यादव ll
मुंबई की गर्मी और शहरों से अलग होती है। पसीने से भीगते हुये बस भागना है और इस मौसम की ज्याद़ती का गुस्सा जब,जहाँ,जैसे,जो मिले दूसरों पर अनचाहे ही उतर जाता है।
हाँ, तो आज भी सूरज देवता सर पर सवार होने को तैयार हो ही रहे थे और मन ही मन लोंगों को परेशान होते देख खुश हो रहे थे…’और काटो जंगल,और करो प्रकृति के साथ दुष्कर्म’। घर से निकली तो सर भन्नाया हुआ और शरीर थका हुआ। रिक्शा पहली बार में स्टेशन चलने के लिये ‘हाँ’ कह दे तो विश्वास नहीं होता कि कानों ने सही सुना है,लगता है…भगवान खुद अपना रथ वो भी ए.सी. वाला लेकर सामने खड़े हों,कहते हुए-‘बालिका मेरे रथ में बैठकर मुझे कृतार्थ करो’।
स्टेशन पर ट्रेन भी समय पर आ गयी और इत्ती सुबह भीड़ तो यूँ भी नहीं होती। थोड़ी देर आँख बंदकर शरीर को आराम देना चाहती थी कि नींद आ गयी। मलाड़ आते-आते आँख जबरदस्ती खोलकर चैक कर ली कि मेरा स्टेशन तो नहीं आ गया? तब ही वो चढ़ा…हाथों में दो क्लिप का पैकेट लेकर ।आश्चर्य हुआ उसे देखकर क्योंकि वो अपने स्टेशन पर रूकी हुई ट्रेन में झाडू लगाने के अलावा कोई और काम नहीं करता। कुछ नहीं बोला आकर बगल में बैठ गया। हाथ बढ़ाया मेरी तरफ। ज़रुरत न होने पर भी मैंने खरीद लिया। ‘आज अकेले,भाई को कहाँ रखा?’ अपंग भाई को कंधे पर ढोने वाला ये बच्चा,आज कंधे पर कोई बोझ नहीं! आश्चर्य की बात थी मेरे लिये। पिछले कई महीनों से देख रही हूँ ,स्टेशन के एक कोने में उसे बिठाकर हर डिब्बे में पुलिस वालों से नज़रें बचाकर चढ़ता हुआ फटाफट झाडू लगाकर अपना पारिश्रमिक लेकर भाई के पास भागकर आता देखने कि वो ठीक तो है। वही जिसे फ्रुटी बहुत पसंद है। जेब में रखे पैसों को तरतीब से रखता हुआ,बिना नज़रें उठाये बोला ” मर गया’..’कब,कैसे?’ सच कहूँ तो उसके मरने का मुझे कोई दुख नहीं था,पर जिस शांति और उपेक्षा पूर्ण तरीके से जवाब दिया गया मैं उससे अचंभित थी। मात्र बारह,तेरह वर्ष का ये बच्चा भाई की मौत से जरा भी आहत नहीं। ये गरीबी की मार है,परिस्थितियों की या फिर संवेदनहीनता की?
क्या हुआ था उसे?
बीमार था? अच्छा केला खाओगे?…टिफिन बैग में रखा था, शायद ईश्वर ने इस नन्हीं सी भूख के लिये रखवा लिया था। हाथों में टिफीन और चम्मच थमा कर पूछ बैठी- तुम्हारा नाम क्या है? पहली बार आज किसी से उसका नाम जानने की कोशिश की थी। ‘अनिल’ बड़ी उदासीनता से बताया उसने। बीमार था… मैंने डॉक्टर से दवा भी लिया,पर वो मर गया। अच्छा हुआ मर गया,क्या रखा है जिंदगी में? अब उसको कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी- केले को धीरे-धीरे चबाते हुये वो बोल रहा था और मैं देख रही थी वो केला नहीं चबा रहा…जिंदगी अपने मजबूत जबड़ों से उसे चबा रही थी। मैं देख रही थी एक फूल को पत्थर बनते हुये। उम्र का एक लंबा हिस्सा जीने के बाद मैंने जाना था- ‘मौत छुटकारा है’ पर इसने तो जीना शुरू भी नहीं किया है अब तक। अंतिम स्टेशन आ चुका था-‘कहाँ जाओगे? बेचने के लिये तो कुछ भी नहीं अब’…इसी ट्रेन से वापस कहते हुये, दरवाजे़ के पास जाकर बैठ गया था वो। उसके बालों को सहलाते हुये सिर्फ इतना ही कह पायी थी-‘अपना ध्यान रखना’।
मैं उतर चुकी थी ट्रेन से। वो दरवाजे़ के पास बैठे-बैठे सो गया था। मैं तब तक खड़ी रही, जब तक ट्रेन फिर से चल नहीं दी। इस भयंकर गर्मी में मैं ही नहीं पिघल रही थी…मेरी संवेदना भी पिघल रही थी।
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