डॉ.यशोधरा शर्मा II
कल रात नींद नहीं आ रही थी वैसे मुझे नींद की शिकायत नहीं रहती है, लेटते ही बढ़िया नींद आ जाती है, हो सकता है कि वायरल का प्रभाव रहा हो और कुछ दिमागी उलझन सी भी थी।
निष्क्रिय लेटे-लेटे मेरा चिंतन प्रारम्भ हो गया और मैं पहुंच गयी। अपने विद्यार्थी जीवन में। पहले इंग्लिश में एम.ए. करने का विचार था किंतु मेरे बाबूजी भी पढ़ाते, फिर, साहित्य चाहे कोई हो प्रेम प्रसंग तो आवश्यक ही है, तो बाबूजी और उनके साथियों से कैसे पढ़ सकूंगी? बी.ए. द्वितीय वर्ष का अनुभव मेरे सामने था बाबूजी ने आंथेलो पढ़ाया था कैसे-कैसे सहपाठियों ने पढ़ना कठिन कर दिया था। संस्कृत में रुचि थी लेकिन निबंध से घबराकर विचार त्यागना पड़ा। फिर सोचा अपनी मातृभाषा में ही नाम रोशन किया जाए। यद्यपि बी.ए. में हिंदी नहीं थी मेरे पास। साहित्य कोई भी हो उसे विषय की भांति नहीं बल्कि डूब कर पढ़ा जाए तब उसका आनंद आता है और पढ़ाने वाले भी रस सिक्त होकर पढ़ाएं। प्रसाद जी की अति सुन्दर रचना ‘कामायनी’ की हमारे विभागाध्यक्ष जी ने वो हाल किया कि कक्षा से भागने की इच्छा होती थी। रस सिद्धांत को तो समझा नहीं पाते थे हां सारा रस कामायनी की श्रद्धा के रूप रंग पर उडेल दिया…
‘नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा, मृदुल अधखुला अंग‘
एक तो इस पंक्ति पर ही छात्राएं ही नत दृष्टि हो जाती थी और हमारे गुरू जी ने तो अपने सारे साहित्य का निचोड़ केवल इसी पंक्ति को समझाने में लगा दिया शायद सप्ताह तो लग ही गया था। यह तो अच्छा था कि विद्या पति उन्होंने नहीं पढ़ाया।

पढ़ाई में मैं कभी गंभीर नहीं रही सब छात्र ‘नोट्स’ बनाते थे, न जाने कितनी पुस्तक ले-ले कर, एक दिन एक अति पढ़ाकू छात्रा के कहने पर बाबूजी का कार्ड लेकर पुस्तकालय चली गई। चार वर्ष में बस दो बार ही आगरा कॉलेज के विशाल से पुस्तकालय के दर्शन किए थे। पुस्तकालय का नाम मिलन स्थल रखा था, जहाँ हम जैसे लोगों का काम नहीं।
मस्तराम थे न मिलन था तो, स्थल पर जाकर क्या करते? और बाबूजी की चौकन्नी दृष्टि हर पल का ध्यान रखती थी। साथ की छात्रा ने मनोयोग से पुस्तकों का चयन किया और मेरी दृष्टि चली गयी विमल मित्र के उपन्यास ‘खरीदी हुई कौड़ियों के मोल’, वहीं विमल मित्र जिनके उपन्यास पर साहब बीबी गुलाम बनी थी, मोटे-मोटे ग्रन्थ से लेकर आ गयी और अपनी उपलब्धि दोनों भाईयों को भी दिखा दी, वह दोनों विज्ञान के विद्यार्थी, पर ये कहां होश था।
बी.ए. में भी संस्कृत के गुरू जी ने आभिज्ञान शाकुन्तलम पढ़ाते हुए- ‘और फिर वायु देव ने मेनका के वस्त्र उड़ा दिए’। वह भी न जाने कब तक वस्त्र उड़वाते रहते। फिर कुछ छात्रों ने ही कहा और भी पुस्तक रह गयी हैं परीक्षा निकट आ रही है तब कहीं जाकर मेनका ने वस्त्र पहिने । ये हमारे संस्कृत के गुरूजी विषय के अनुरूप ही थे, इनका व्यक्तित्व ‘रसिक शिरोमणि’ ही कहा जाए तो सही है। कक्षा से सब छात्र भाग गए एक कुत्ते का बच्चा छोड़ दिया और शिकायत पंहुची बाबूजी के पास कि आपकी बेटी बहुत शैतानी करवाती है, सच था ये । बेचारे काले रंग का नया सूट पहन कर आए, सिर के चार-पाँच बालों को झटके दिए जा रहे थे। कुर्सी की जाली पर ढेर सारी चॉक घिस दी। आचार्य जी की पेंट पर सफेद जाली सब हँस रहे थे वह अपने नवीन सूट की प्रशंसा समझ कर पुलकित पुलकित ।
अनुशासन के लिए प्राचार्य ने वीमेन्स विंग अलग करवा दी थी बिल्डिंग एक थी रास्ते अलग पर पोस्ट ग्रेजुएशन की, संस्कृत की कक्षा साथ होती थी। पहली बार कॉलेज और ये दूरियाँ। बाबूजी बेहद प्रसन्न ! उनका वश चलता तो अपनी सुपुत्री को ऊँची मीनार बनवाकर रख देते जैसे परी कथाओं में एक कहानी में राजकुमारी को रख दिया था न, शायद वैसे ही। कहीं कुछ अशोभनीय न लिख जाऊं अत: बहुत संभल कर काट पीट कर लिखा है, तारतम्य नहीं बंध पाया है। आगे फिर आगे…
नोट : पुस्तक ‘बिम्ब प्रतिबिंब’ (अराध्या प्रकाशन )से साभार
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