कविता सामाजिक सशक्तिकरण

मैंने खुद को कभी पढ़ा नहीं

संजय स्वतंत्र II

कभी-कभी लगता है कि
सेल्फ में बरसों से
धूल खाई किताब जैसा
हो गया हूं मैं।
मैंने बरसों से खुद को
कभी पढ़ा ही नहीं।

हो गया हूं अब
अखबार के पन्ने जैसा भी
जो गुजरते रहे
मेरी आंखों से होकर और
छापेखाने से निकलते रहे
आपके लिए खबरें लेकर।

हजारों शब्द हैं मेरे पास
प्रेम रचने के लिए
फिर भी मुझे
किसी ने पढ़ा ही नहीं।

धूल खाई किताबों से
बहती हैं नदियां
कई प्रेम कहानियां लेकर,
इन किताबों से उमड़ता है
एक नीला समंदर
गुलाबी चिट्ठियां लेकर
कौन पढ़ेगा इन्हें?
लड़ते-झगड़ते युगलों से
मैंने कभी पूछा ही नहीं।

धूल खाई किताबों से
झड़ते हैं हरे-भरे पेड़
जो कट गए लेखकों की
पुस्तकों के लिए किसी दिन,
उन पेड़ों के नीचे  
अब कोई नहीं बैठता,
किसी को फुर्सत भी तो नहीं।

नफरत के इस दौर में
कोई तपाक से गले लगाता नहीं
गलाकाट प्रतियोगिता का
अब दौड़ है साहब,
दिल से कोई अब
हाथ मिलाता नहीं,
सचमुच कोई गले लगाता नहीं।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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